हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने अपने ज़माने की हुकूमत के ख़िलाफ़ जो क़ियाम किया, उसकी बहुत सी वजहें हैं। लेकिन हम यहाँ पर उनमें से सिर्फ़ ख़ास ख़ास वजहों का ही ज़िक्र कर रहे हैं।
1- ख़िलाफ़त पर फ़ासिद लोगों का क़ब्ज़ा
उम्मत
की इमामत व रहबरी एक पाको पाकीज़ा व इलाही ओहदा है, यह ओहदा हर इंसान के
लिए नही है। लिहाज़ा इमाम में ऐसी सिफ़तों का होना ज़रूरी है जो उसे अन्य
लोगों से मुमताज़(श्रेष्ठ) बनायें ।
अक़्ल व रिवायतें इस बात को
साबित करती हैं कि इमामत व ख़िलाफ़त का मक़सद समाज से बुराईयों को दूर कर
के अदालत (न्याय) को स्थापित करना और लोगों के जीवन को पवित्र बनाना है। यह
उसी समय संभव हो सकता है जब इमामत का ओहदा लायक़, आदिल व हक़ परस्त इंसान
के पास हो। कोई समाज उसी समय अच्छा व सफ़ल बन सकता है जब उसके ज़िम्मेदार
लोग नेक हों। इस बारे में हम आपके सामने दो हदीसे पेश कर रहे हैं।
पैग़म्बरे
इस्लाम (स.) ने फ़रमाया कि “ दीन को नुक़्सान पहुँचाने वाले तीन लोग हैं,
बे अमल आलिम, ज़ालिम व बदकार इमाम और वह जाहिल जो दीन के बारे में अपनी राय
दे।”
इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम
से और उन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम (स.) से रिवायत की है कि आपने फ़रमाया कि
दो गिरोह ऐसे हैं अगर वह बुरे होंगे तो उम्मत में बुराईयाँ फैल जायेंगी और
अगर वह नेक होंगे तो उम्मत भी नेक होगी। आप से पूछा गया कि या रसूलल्लाह वह
दो गिरोह कौन हैं ? आपने जवाब दिया कि उम्मत के आलिम व हाकिम।
मुहम्मद ग़िज़ाली मिस्री ने बनी उमैय्याह के समय में हुकूमत में फैली हुई बुराईयों को इस तरह बयान किया है।
· ख़िलाफ़त बादशाहत में बदल गयी थी।
·
हाकिमों के दिलों से यह एहसास ख़त्म हो गया था, कि वह उम्मत के ख़ादिम
हैं। वह निरंकुश रूप से हुकूमत करने लगे थे और जनता को हर हुक्म मानने पर
मजबूर करते थे।
· कम अक़्ल, मुर्दा ज़मीर, गुनाहगार, गुस्ताख़ और इस्लामी तालीमात से ना अशना लोग ख़िलाफ़त पर क़ाबिज़ हो गये थे।
·
बैतुल माल (राज कोष) का धन उम्मत की ज़रूरतों व फ़क़ीरों की आवश्यक्ताओं
पर खर्च न हो कर ख़लीफ़ा, उसके रिश्तेदारों व प्रशंसको की अय्याशियों पर
खर्च होता था।
· तास्सुब, जिहालत व क़बीला प्रथा जैसी
बुराईयाँ, जिनकी इस्लाम ने बहुत ज़्यादा मुख़ालेफ़त की थी, फिर से ज़िन्दा
हो उठी थीं। इस्लामी भाई चारा व एकता धीरे धीरे ख़त्म होती जा रही थी। अरब
विभिन्न क़बीलों में बट गये थे। अरबों और अन्य मुसलमान के मध्य दरार पैदा
हो गयी थी। बनी उमैय्याह ने इसमें अपना फ़ायदा देखा और इस तरह के मत भेदों
को और अधिक फैलाया, एक क़बीले को दूसरे क़बीले से लड़ाया। यह काम जहाँ
इस्लाम के उसूल के ख़िलाफ़ था वहीं इस्लामी उम्मत के बिखर जाने का कारण भी
बना।
· चूँकि ख़िलाफ़त व हुकूमत ना लायक़, बे हया व नीच
लोगों के हाथों में पहुँच गई थी लिहाज़ा समाज से अच्छाईयाँ ख़त्म हो गयी
थीं।
· इंसानी हुक़ूक (आधिकारों) व आज़ादी का ख़ात्मा हो
गया था। हुकूमत के लोग इंसानी हुक़ूक़ का ज़रा भी ख़्याल नही रखते थे।
जिसको चाहते थे क़त्ल कर देते थे और जिसको चाहते थे क़ैद में डाल देते थे।
सिर्फ़ हज्जाज बिन यूसुफ़ ने ही जंग के अलावा एक लाख बीस हज़ार इंसानों को
क़त्ल किया था।
अखिर में ग़ज़ाली यह लिखते हैं कि बनी उमैय्याह ने
इस्लाम को जो नुक़्सान पहुँचाया वह इतना भंयकर था, कि अगर किसी दूसरे दीन
को पहुँचाया जाता तो वह मिट गया होता।
2 बिदअतों का फैलना
बिदअत क्या है?
अपनी तरफ़ से शरीयत में किसी ऐसी चीज़ को शामिल करना जिसके बारे में साहिबाने शरीयत की तरफ़ से कोई नस न हो, बिदअत कहलाता है।
अफ़सोस है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के बाद दीन में बिदअतें फैलनी शुरू हो
गईं और मुआविया बिन अबु सुफ़यान के समय में तो बिदअतें अपनी चरम सीमा पर
पहुँच गयी थीं।
मुआविया के ज़रिये फैलने वाली बिदअतें और दीन मुखालिफ़ वह काम जिनको वह खुले आम अंजाम देता था इस तरह हैं।
1) शराब पीना। (अल ग़दीर जिल्द न. 10 पेज न. 179)
2) रेशमीन कपड़े पहनना। (अल ग़दीर जिल्द न. 10 पेज न. 216)
3) सोने चाँदी के बरतनों का इस्तेमाल करना। (अल ग़दीर जिल्द न. 10 पेज न. 216)
4) गाना सुनना। ( शरहे इब्ने अबिल हदीद जिल्द न. 16 पेज न. 161)
5) इस्लामी क़ानूनों के खिलाफ़ फैसले सुनाना। (अल ग़दीर जिल्द न. 10 पेज न. 196)
6) चोर को सज़ा न देना। (अल ग़दीर जिल्द न. 10 पेज न. 214)
7) ज़िना (अनैतिक सम्बन्ध) द्वारा पैदा होने वाले बच्चे को सही मानना। (शरहे इब्ने अबिल हदीद जिल्द न.16 पेज न.187)
8) हज़रत अली अलैहिस्सलाम के साथ जंग करना, जिसमें पिचहत्तर हज़ार लोगों की जानें गयीं। (मरूजुज़्जहब जिल्द न. 2 पेज न.3)
9) हज़रत अली अलैहिस्सलाम के शियों के क़त्ले आम के लिए फौजों को भेजना। (अल ग़दीर जिल्द न.11 पेज न. 16,17,18)
10) मालिके अशतर को क़त्ल करना। (मरूजुज़्जहब जिल्द न. 2 पेज न.409)
11) हुज्र बिन अदि व उनके साथियों को क़त्ल करना। (अल ग़दीर जिल्द न.11 पेज न. 52)
12) उमर बिन अलहम्क़ को क़त्ल करना।(अल ग़दीर जिल्द न.11पेज न. 41)
13) मिस्र पर हमला करना और हज़रत अली अलैहिस्सलाम के नुमाइंदे मुहम्मद बिन अबु बकर को क़त्ल करना। (मरूजुज़्जहब पेज न. 218)
14) हज़रत अली अलैहिस्सलाम के शियों का क़त्ले आम करना। (अल ग़दीर जिल्द न.11पेज न. 28)
15) हज़रत अली अलैहिस्सलाम की मुख़ालेफ़त में जाली हदीसें लिखवाना। (अल ग़दीर जिल्द न.11पेज न. 28)
16) उसमान की तारीफ़ में जाली हदीसें घड़वाना।(अल ग़दीर जिल्द न.11पेज न. 28)
17) नमाज़े जुमा के ख़ुत्बों में हज़रत अली अलैहिस्सलाम पर लअन कराना। (अल ग़दीर जिल्द न.10पेज न. 257)
18) हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम को जहर खिलवा कर शहीद कराना। ( मरूजुज़्ज़हब जिल्द न. 2 पेज न. 427)
19) ग़ैर क़ानूनी तौर पर यज़ीद को अपना जानशीन (उत्तराधिकारी) बनाना। (कामिल इब्ने असीर जिल्द न. 3 पेज न. 503 से 511 तक)
20) जुमे की नमाज़ बुध के दिन पढ़ा देना। (( मरूजुज़्ज़हब जिल्द न. 3 पेज न.32)
21) इस्लामी ख़िलाफ़त को मोरूसी (वंशानुगत) बना देना।
3 अख़लाक़ के ख़त्म हो जाने और लोगों के जिहालित की तरफ़ पलटने का ख़तरा
इमाम
हुसैन अलैहिस्सलाम के क़ियाम की एक ख़ास वजह यह भी थी कि उम्मत के बीच से
अख़लाक़ ख़त्म होता जा रहा था और उसकी जगह पर बुराईयाँ फैल रही थीं।
पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ने अपनी पैग़म्बरी के पहले दिन से ही जिहालत को
ख़त्म करने और अख़लाक़ व इल्म फैलाने का काम शुरू किया था। पैग़म्बरे
इस्लाम (स.) ने इल्म, ईमान, तक़वे, शुजाअत, जिहाद, अमानतदारी, रूह की
पाकीज़गी, आज़ादी और कुरबानी का दर्स दिया। आपने शिर्क को यकता परस्ती से
बदला, जातीय व क़बीले के भेद भावों को ख़त्म किया। ज़ुल्म व अन्याय की
मुख़ालेफ़त की, आपसी मत भेदों को समाप्त करा के भाईचारे की नीव डाली।
अर्थात जिहालत के समाज व क़ानूनों को ख़त्म कर के नये इस्लामी व अख़लाक़ी
समाज की स्थापना की। पैग़म्बरे इस्लाम के समय में यह काम तेज़ी से चलता रहा
और आपके बाद भी यह सिलसिला जारी रहा। परन्तु उसमान के समय से इस्लामी समाज
अख़लाकी तौर पर नीचे आने लगा और बनी उमैय्याह के समय में तो इसकी रफ़्तार
और तेज़ हो गई थी। जाहिलियत के समय की मान्यताएं फिर से जीवित हो उठीं थीं।
ख़लीफ़ा ऐशो आराम की जिन्दगी बसर करने लगे थे, समाज में फैले ज़ुल्म व बे
अदालती की तरफ़ कोई ध़्यान नही दिया जाता था। हक़ की जगह बातिल ने ले ली
थी। हक़ को कुचला जाने लगा था और सादी ज़िन्दगी ऐश में बदल गई थी। ख़लीफ़ा
सांसारिक मोह माया के जाल में फस गये थे।
पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के
ज़िन्दगी के समाज में और बनी उमैय्याह के हुकूमत के दौर में जो फ़र्क़ पैदा
हो गया था उसको इस तरह बयान किया जा सकता है।
1) पैग़म्बरे
इस्लाम (स.) के दौर में सब लोगों का ईमान व एतेक़ाद आपकी ज़ात पर था। मगर
बनी उमैय्यह के दौर में लोग ख़लीफ़ाओं को शक की नज़र से देखने लगे थे।
2)
पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के दौर में हुकूमत के कार कुनान अम्मार, सलमान,
अबुज़र मिक़दाद जैसे नेक लोग थे। मगर बनी उमैय्यह के दौर में हुकूमत के
कामों कों वलीद बिन उक़बा, सअद बिन अब्दुल्लाह और ज़ियाद जैसे लोग देख रहे
थे। वलीद बिन उक़बा (यह एक फ़ासिक़ इंसान था। आयते नबा इसी के बारे में
नाज़िल हुई थी।) सअद बिन अब्दुल्लाह (इसने पैग़म्बर (स.) की तरफ़ से झूठ
बोला था) और ज़ियाद (यह ज़िना के ज़रिये (अनैतिक सम्बन्धों के आधार पर)
पैदा हुआ था।)
3) पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के दौर में लोग भूखे
रह कर, पेट से पत्थर बांध कर ख़न्दक़े खोदते थे और इस्लाम की हिफ़ाज़त के
लिए अपनी जान क़ुरबान करते थे। मगर बनी उमैय्यह के दौर में ख़लीफ़ा इस्लामी
फ़तूहात(सफ़लताओं) से मिलने वाली दौलत के सहारे महलों में कनीज़ों के साथ
ऐशो आराम की ज़िन्दगी बसर करने लगे थे।
4) पैग़म्बरे इस्लाम
(स.) के दौर में रात को मुसलमानों के घरों से क़ुरआन की तिलावत व मुनाजात
की आवाज़े आती थीं। मगर बनी उमैय्यह के दौर में मुसलमानों के घरों से गाने
बजाने, औरतों के नाचने, तालियाँ पीटने और पायलों की झंकार की आवाज़े सुनाई
देने लगी थीं।
5) पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के दौर में हुकूमत के
कार कुनों (कर्मचारियों) को चुनने का आधार अख़लाक़ व तक़वा था। मगर बनी
उमैय्यह के दौर में हुकूमत के कारकुनों को चापलूसी के आधार पर चुना जाने
लगा था।
6) पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के दौर में समाज में न्याय व
अख़लाक़ की गूँज थी। मगर बनी उमैय्यह के दौर में चारो तरफ़ ज़ुल्म व
अन्याय के बादल मंडला रहे थे।
7) पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के दौर में अम्र बिल मारूफ़ व नही अनिल मुनकर [1]
की वजह से समाज पाको पाकीज़ा था। मगर बनी उमैय्यह के दौर में हज़रत इमाम
हुसैन अलैहिस्सलाम जैसी अज़ीम शख़सियत को भी अम्र बिल मारूफ़ व नही अनिल
मुनकर की वजह से निशाना बनाया गया।
सवाल यह है कि यह सब बदलाव समाज में कौन लाया ?
बनी उमैय्यह इस्लाम से बदला ले रहे थे।
इस्लाम
से पहले ,अबुसुफ़यान (यज़ीद का दादा) जिहालत की मान्यताओं, बुत परस्ती व
शिर्क का सबसे बड़ा समर्थक था। जब पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ने बुत परस्ती और
समाज में फैली बुराईयों को दूर करने का काम शुरू किया, तो अबु सुफ़यान को
हार का सामना करना पड़ा। अबुसुफ़यान, उसकी बीवी व उसके बेटे जहाँ तक हो
सकता था पैग़म्बरे इस्लाम (स.) को दुखः पहुँचाते रहे। उन्होंने इस्लाम को
मिटाने के लिए जंगे बद्र व ओहद की नीव डाली। जंगे बद्र में अबुसुफ़यान के
तीन बेटे इस्लाम की मुख़ालेफ़त में लड़े, मुआविया, हनज़ला व अम्र, हनज़ा
हज़रत अली अलैहिस्सलाम के हाथों क़त्ल हुआ, अम्र क़ैदी बना और मुआविया
मैदान से भाग गया था। यह जब मक्के पहुँचा तो इसके पैर भागने की वजह से इतने
सूज गये थे कि इसने दो महीने तक अपना इलाज कराया था। अबु सुफ़यान की बीवी
जंगे ओहद के ख़त्म होने के बाद मैदान में आयी। इस्लामी शहीदों के गोश्त के
टुकड़ों को जमा करके उनसे हार बनाया और अपने गले में पहना। पैग़मेबरे
इस्लाम (स.) के चचा हज़रत हमज़ा अलैहिस्सलाम के मुर्दा ज़िस्म से उनके
कलेजे को निकाल कर चबाने की कोशिश की।
फ़तहे मक्का के बाद इसी अबु
सुफ़यान व इसकी बीवी ने क़त्ल होने से बचने के लिए ज़ाहिरी तौर पर इस्लाम
क़बूल कर लिया। मगर पूरी जिन्दगी उन दोनों के दिलों से इस्लाम दुश्मनी न
निकल सकी और वह इसी हालत में मर गये। उन दोनों के बाद उनका बेटा मुआविया
इस्लाम की जड़ों को काटने, इस्लाम की शक्ल को बदलने, जिहालत के निज़ाम और
बनी उमैय्यह की रविश को फिर से ज़िन्दा करने की कोशिशे करता रहा।
मुआविया इस्लाम को मिटाना चाहता था।
मसऊदी
ने मुवफ़्फ़क़यात इब्ने बिकार नामक किताब से मतरफ़ बिन मुग़ैरह बिन शेबा
के हवाले से लिखा है कि, वह कहता है कि मेरा बाप का मुआविया के पास उठना
बैठना था। वह हमेशा उससे मुलाक़ात के लिए जाया करता था। कभी कभी मैं भी
उसके साथ मुआविया के पास जाया करता था। वह जब मुआविया के पास से घर पलट कर
आता था तो अक्सर उसकी चालाकी की बातें सुनाया करता था। लेकिन एक रात जब वह
मुआविया से मुलाक़ात के बाद घर पलटा तो इतना ग़मगीन था कि उसने शाम का खाना
भी नही खाया। मैनें पूछा कि आज आप इतने ग़मज़दा क्यों हैं ? उसने जवाब
दिया कि मैं सबसे ज़्यादा ख़बीस इंसान के पास से आ रहा हूँ। मैने आज
मुआविया से बातें की और उससे कहा कि अब तू बूढ़ा हो गया है तेरी तमाम
तमन्नायें पूरी हो चुकी हैं। अब तू इंसाफ़ से काम ले और नेक काम कर अपने
भाईयों (बनी हाशिम) के साथ अहसान व सिलहे रहम कर। अल्लाह की क़सम अब उनके
पास ऐसी कोई चीज़ नही है जिससे तुझे ख़तरा हो। मुआविया ने कहा कि मैं हर
गिज़ ऐसा नही कर सकता। इसके बाद उसने अबु बकर, उमर व उसमान का ज़िक्र किया
और कहा कि इनमें से हर एक ने हुकूमत की लेकिन मरने के बाद उन सब का नामों
निशान मिट गया। लेकिन अभी तक पाँचों वक़्त अज़ान में मुहम्मद का नाम लिया
जाता है। मैं चाहता हूँ कि यह सब भी ख़त्म हो जाये। यानी मुआविया की दिली
तमन्ना यह थी कि इस्लाम व पैग़म्बरे इस्लाम का नामों निशान मिट जाये।
4 अदालत का ख़त्म होना और ज़ुल्म का बढ़ जाना
अदालत
समाज की जान है। जिस समाज में अदालत न हो वह कभी भी फूल फल नही सकता। जब
किसी समाज से अदालत ख़त्म हो जाती है तो वह समाज बिखर जाता है और अदालत
समाज से उस समय ख़त्म होती है जब ख़ुद हाकिम ज़ुल्मो सितम करने लगें।
इस्लामी समाज में वैसे तो पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के बाद से ही ज़ुल्मो सितम
शुरू हो गये थे लेकिन मुआविया बिन अबु सुफ़यान के समय में यह ज़ुल्मों
सितम अपनी चरम सीमा पर पहुँच गये थे। मुआविया बिन अबु सुफ़यान ने जो अपने
शासन काल में ज़ुल्म किये उनको दो भागों में बाटा जा सकता है।
मुआविया के ज़ुल्म हज़रत अली अलैहिस्सलाम की ज़िन्दगी में
मुआविया ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम की ज़िन्दगी में जो ज़ुल्म किये उनका ख़ुलासा इस तरह किया जा सकता है।
1)
सन् 37 हिजरी क़मरी से मुआविया ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम की हुकूमत के
इलाक़ो में अपनी फ़ौज की छोटी छोटी टुकड़ियों को भेजना शुरू कर दिया था,
ताकि वह लोगों का क़त्ले आम करें, उनके घरों को जलायें, उनकी खेतियों को
बर्बाद करें और कुछ लोगों को कैदी बना कर वापस पलटें।
2)
मुआविया ने जब अपने एक साथी सुफ़यान बिन औफ़ को अम्बार पर हमला करने के लिए
भेजा, तो उसको हुक्म दिया कि जो भी तेरे सामने आये उसे क़त्ल कर देना और
जो चीज़ भी तुझे दिखयी दे उसे तहस नहस कर देना।
3) मुआविया ने अब्दुल्लाह बिन मसअद को हुक्म दिया कि यहाँ से मक्के तक जो भी बदवी तुझे ज़कात न दे उसे क़त्ल कर देना।
4)
मुआविया ने बुस्र बिन इरतात को हुक्म दिया कि पूरे इस्लामी हुकूमत का दौरा
कर और जहाँ भी कोई अली का चाहने वाला मिले उसे क़त्ल कर देना।
मुआविया के ज़ुल्म हज़रत अली अलैहिस्सलाम की शहादत के बाद
मुआविया ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम के बाद जो ज़ुल्मो सितम किये उनका ख़ुलासा यह है।
1) हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम को शहीद करना।
2)
उमर बिन हम्क़, हुज्र बिन अदी व उनके साथियों को क़त्ल करना। यह ऐसे मोमिन
थे जो हमेशा ज़िक्रे ख़ुदा किया करते थे और उनके माथों पर सजदों के निशान
मौजूद थे।
3) ज़ियाद को अपने बाप अबुसुफ़यान की औलाद घोषित
करना और उसे कूफ़े का गवर्नर बनाना। हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने जो
ख़त मुआविया को लिखा था उसमें यही लिखा था कि तूने ज़ियाद को उम्मते
मुसलेमाँ पर हाकिम बना दिया ताकि वह आज़ाद लोगों को क़त्ल करे, उनके हाथों
पैरों को काटे और खजूर के पेड़ों पर उन्हें फाँसी दे। इब्ने अबिल हदीद ने
लिखा है कि ज़ियाद ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम के चाहने वालों को जहाँ भी
पाया क़त्ल किया, उनके हाथों पैरो को काटा, उनको फाँसी पर लटकाया और जो बचे
उनको डरा धमका कर इराक़ से बाहर निकाल दिया। यहाँ तक कि हज़रत अली
अलैहिस्सलाम के चाहने वालों में से एक भी मशहूर आदमी इराक़ में न रहा।
4)
मुआविया ने अपनी पूरी हुकूमत में यह ऐलान कराया कि अली और उनके खानदान पर
लानत की जाये। अल्लामा अमीनी ने लिखा है कि हज़रत अली अलैहिस्साम पर लअन एक
सुन्नत बना गया था और सत्तर हज़ार मिम्बरों से बनी उमैय्या की हुकूमत में
आप पर लअन होता था।
5) यज़ीद के लिए लोगों से बैअत लेना।
मुआविया के तमाम ज़ुल्मो सितम एक तरफ़ और यह ज़ुल्म एक तरफ़। मुआविया ने यह
काम कर के इस्लामी ख़िलाफ़त की बाग डोर एक ऐसे नालायक़ जवान के हाथों में
सौँप दी जो शराबी, जूवे बाज़, बे दीन, आशिक़ मिजाज़ और कुत्तों के साथ
खेलने वाला था।
हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने जब यह सब कुछ होते
देखा तो इसकी मुख़ालेफ़त में मुआविया को ख़त लिखा और उसे इन कामों पर
तम्बीह की। जब मुआविया इस दुनिया से गया और हुकूमत यज़ीद के हाथों में
पहुँची तो अब नसिहतों के दरवाज़े बन्द हो चुके थे। समाज में चारो तरफ़
ज़ुल्मो सितम फैल चुका था। यज़ीद ने तख़्ते हुकूमत पर बैठते ही मदीने के
गवर्नर को ख़त लिखा कि हुसैन इब्ने अली से मेरे लिए बैअत ले ले। मदीने के
गवर्नर वलीद ने यज़ीद का यह पैग़ाम इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम तक पहुँचाया
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया ऐ वलीद!! हम पैग़म्बर (स.) के अहले बैत
हैं , हम मादने रिसालत हैं, हमारा घर वह है जिसमें फ़रिश्ते आते जाते हैं,
अल्लाह का फ़ैज़ हम से शुरू होता है और पर ही तमाम होता है।
यज़ीद
शराब पीने वाला, खुले आम गुनाह करने वाला और लोगों को बे गुनाह क़त्ल करने
वाला है लिहाज़ा मुझ जैसा इंसान यज़ीद की बैअत नही कर सकता।
इमाम
हुसैन अलैहिस्सलाम ने अपने इस बयान से सभी चीज़ों को रौशन कर दिया और अपने
क़रीब तरीन अज़ीज़ों के साथ इस ज़ुल्मों सितम का मुक़ाबला करने के लिए निकल
पड़े