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यज़ीद के विरूद्ध हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का क़याम व उसके उद्देश्य


Courtesy : http://alhassanain.org/hindi/?com=content&id=407

सन् 60 हिजरी क़मरी में मुआविया के मरने के बाद उसका बेटा यज़ीद शाम के सिहासन पर बैठा और उसने स्वयं को पैग़म्बर का उत्तराधिकारी घोषित किया। सत्ता पाने के बाद उसने इस्लामी मान्याताओं को बदलने और क़ुरआन के आदेशों का विरोध करने के साथ साथ मानवता विरोधी कार्य करने भी शुरू कर दिये। इमाम हुसैन ने जब यज़ीद को इस्लाम विरोधी कार्य करते देखा तो सन् (61) हिजरी में यज़ीद के विरूद्ध क़ियाम (क़ियाम अर्थात किसी के विरूद्ध संघर्ष करना) किया। हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने अपने क़ियाम के उद्देश्यों को आपने प्रवचनो में इस प्रकार स्पष्ट किया कि----
1—             जब शासकीय यातनाओं से तंग आकर हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम मदीना छोड़ने पर मजबूर हो गये तो उन्होने अपने क़ियाम के उद्देश्यों को इस प्रकार स्पष्ट किया। “ मैं अपने व्यक्तित्व को चमकाने या सुखमयी जीवन यापन करने या उपद्रव फैलाने के लिए क़ियाम नहीं कर रहा हूँ। बल्कि मैं केवल अपने नाना (पैगम्बरे इस्लाम) की उम्मत (इस्लामी समाज) में सुधार हेतु जा रहा हूँ तथा मेरा निश्चय मनुष्यों को अच्छाईयों की और बुलाना व बुराईयों से रोकना है। मैं अपने नाना पैगम्बर व अपने पिता इमाम अली की शैली पर चलूँगा। ”
2—             एक दूसरे अवसर पर कहा कि “ ऐ अल्लाह तू जानता है कि हम ने जो कुछ किया वह शासकीय शत्रुता या सांसारिक मोहमाया के कारण नहीं किया। बल्कि हमारा उद्देश्य यह है कि तेरे धर्म की निशानियों को यथा स्थान पर पहुँचाए तथा तेरी प्रजा के मध्य सुधार करें ताकि तेरी प्रजा अत्याचारियों से सुरक्षित रह कर तेरे धर्म के   सुन्नत व वाजिब आदेशों का पालन कर सके। ”
3—             जब आप की भेंट हुर पुत्र यज़ीदे रिहायी की सेना से हुई तो आपने कहा कि    “ ऐ लोगो अगर तुम अल्लाह से डरते हो और हक़ को   हक़दार के पास देखना चाहते हो, तो यह कार्य अल्लाह को प्रसन्न करने के लिए बहुत अच्छा है। हम अहलेबैत ख़िलाफ़त पद के, अन्य अत्याचारी व व्याभीचारी दावेदारों की अपेक्षा सबसे अधिक हक़दार हैं। ”
4—             एक अन्य स्थान पर कहा कि हम अहलेबैत शासन के उन लोगों से अधिक हक़दार हैं जो शासन कर रहे है।  
         इन चार कथनों में जिन उद्देश्यों की और संकेत किया गया है वह इस प्रकार हैं-------
1-      इस्लामी समाज में सुधार।
2-      जनता को अच्छे कार्य करने का उपदेश।
3-      जनता को बुरे कार्यो से मना करना।
4-      आदरनीय पैगम्बर व आदरनीय अली की कार्य शैली को किर्यान्वित करना।
5-      समाज को शांति व सुरक्षा प्रदान करना।
6-      अल्लाह के आदेशो के पालन हेतु भूमिका तैयार करना।
नोट--यह समस्त उद्देश्य उसी समय प्राप्त हो सकते हैं जब शासन की बाग़ डोर स्वंय इमाम के हाथो में हो जो कि इसके वास्तविक अधिकारी हैं। अतः इमाम ने स्वंय कहा भी है कि शासन हम अहलेबैत का अधिकार है न कि शासन कर रहे उन लोगों का जो अत्याचारी व व्याभीचारी हैं।  
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के क़ियाम के परिणाम
1-      बनी उमैया के वह धार्मिक षड़यन्त्र छिन्न भिन्न हो गये जिनके आधार पर उन्होंने अपनी सत्ता को शक्ति प्रदान की थी।
2-      बनी उमैया के उन शासकों को लज्जित होना पडा जो सदैव इस बात के लिए तत्पर रहते थे कि इस्लाम से पूर्व के मूर्खता पूर्ण प्रबन्धो को क्रियान्वित किया जाये।
3-      कर्बला के मैदान में इमाम हुसैन की शहादत से मुसलमानों के दिलों में यह चेतना जाग्रत हुई कि हमने इमाम हुसैन की सहायता न करके बहुत बड़ा पाप किया है।
इस चेतना से दो चीज़े उभर कर सामने आयीं, एक तो यह कि इमाम की सहायता न करके जो गुनाह (पाप) किया उसका परायश्चित होना चाहिए। दूसरे यह कि जो लोग इमाम की सहायता में बाधक बने थे, उनकी ओर से लोगों के दिलो में घृणा व द्वेष उत्पन्न हो गया।
इस गुनाह के अनुभव की आग लोगों के दिलों में निरन्तर भड़कती चली गयी। तथा बनी उमैया से बदला लेने व अत्याचारी शासन को उखाड़ फेकने की भावना प्रबल होती गयी।
अतः तव्वाबीन   नामक समूह ने अपने इसी गुनाह के परायश्चित के लिए क़ियाम किया ताकि इमाम की हत्या का बदला ले सकें।
4-      इमाम हुसैन के क़ियाम ने लोगों के अन्दर अत्याचार का विरोध करने के लिए
प्राण फूँक दिये। इस प्रकार इमाम के क़ियाम व कर्बला के खून ने हर उस बाँध को तोड़ डाला जो इन्क़लाब (क्रान्ति) के मार्ग में बाधक था।
5-      इमाम के क़ियाम ने जनता को यह शिक्षा दी कि कभी भी न किसी के सम्मुख झुको न अपने व्यक्तित्व को बेंचो । शैतानी ताकतों से लड़ो व इस्लामी सिद्धान्तों को क्रियान्वित करने के लिए प्रत्येक चीज़ को नयौछावर कर दो।
6-      समाज के अन्दर यह नया दृष्टिकोण पैदा हुआ कि अपमान जनक जीवन से सम्मान जनक मृत्यु श्रेष्ठ है।
 
 
 

यज़ीद के विरुद्ध हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का क़याम व उसके उद्देश्य: एक विस्तृत अध्ययन


#### पृष्ठभूमि
हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का क़याम इस्लाम के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ है। 680 ईस्वी (61 हिजरी) में यज़ीद इब्न मुआविया के शासन ने इस्लामिक दुनिया में अत्याचार और भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया। यज़ीद के शासन ने इस्लामिक सिद्धांतों का उल्लंघन किया और इस्लामी न्याय और नैतिकता को विकृत किया। ऐसी स्थिति में, हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने सत्य और न्याय की रक्षा के लिए खड़े होने का निर्णय लिया।

#### कर्बला का सफर
मदीना से कर्बला तक का सफर हज़रत इमाम हुसैन के लिए एक आध्यात्मिक और नैतिक संघर्ष था। उन्होंने मदीना छोड़कर कूफा की ओर जाने का निर्णय लिया, क्योंकि उन्हें वहां के लोगों से समर्थन की उम्मीद थी। हालांकि, उनके रास्ते में यज़ीद की सेना ने उन्हें रोक दिया और वे कर्बला के मैदान में घिर गए।

#### कर्बला की घटना और शहादत
कर्बला की घटना 10 मुहर्रम 61 हिजरी को हुई। हज़रत इमाम हुसैन और उनके वफादार साथियों ने यज़ीद की बड़ी सेना के खिलाफ वीरता से लड़ाई लड़ी। इस लड़ाई में, हज़रत इमाम हुसैन, उनके परिवार के सदस्य और अन्य साथी शहीद हो गए। यह संघर्ष न केवल एक सैन्य संघर्ष था, बल्कि यह इस्लामी सिद्धांतों और न्याय की रक्षा के लिए एक महान बलिदान था।

#### क़याम के उद्देश्य
1. **न्याय और सत्य की रक्षा**: हज़रत इमाम हुसैन का उद्देश्य था कि वे यज़ीद के अत्याचार और भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़े होकर न्याय और सत्य की रक्षा करें। उन्होंने अपने क़याम के माध्यम से यह संदेश दिया कि किसी भी प्रकार के अन्याय के खिलाफ खड़ा होना आवश्यक है।

2. **इस्लामी सिद्धांतों की पुनर्स्थापना**: यज़ीद के शासन में इस्लामी सिद्धांतों का उल्लंघन हो रहा था। हज़रत इमाम हुसैन ने अपने क़याम के माध्यम से इस्लाम के असली मूल्यों और सिद्धांतों को पुनर्स्थापित करने का प्रयास किया।

3. **मानवता के मूल्यों की प्रेरणा**: हज़रत इमाम हुसैन का क़याम मानवता, साहस और बलिदान के मूल्यों को जीवंत करता है। उनका बलिदान हमें यह सिखाता है कि सत्य और न्याय की रक्षा के लिए किसी भी कीमत पर खड़ा रहना आवश्यक है, चाहे इसके लिए कितनी भी बड़ी कुर्बानी क्यों न देनी पड़े।

#### कर्बला का प्रभाव और महत्व
कर्बला की घटना ने इस्लामिक दुनिया में एक स्थायी प्रभाव छोड़ा है। यह घटना न केवल इस्लामी मान्यताओं की रक्षा का प्रतीक है, बल्कि यह न्याय, सत्य और मानवता के मूल्यों की पुनर्स्थापना का भी प्रतीक है। हर वर्ष मुहर्रम के महीने में, मुसलमान हज़रत इमाम हुसैन की याद में मातम मनाते हैं और उनके बलिदान को याद करते हैं। यह परंपरा हमें यह याद दिलाती है कि अत्याचार के खिलाफ खड़ा होना और सत्य के लिए संघर्ष करना हमारी जिम्मेदारी है।

#### निष्कर्ष
हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का क़याम एक महान प्रेरणा स्रोत है। उनका बलिदान इस्लामी इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय है जो हमें सत्य, न्याय और मानवता के मूल्यों को अपनाने की प्रेरणा देता है। करबला की घटना और हज़रत इमाम हुसैन का बलिदान हमें यह सिखाता है कि सत्य और न्याय की रक्षा के लिए हमें हमेशा तैयार रहना चाहिए। यह क़याम और बलिदान हमें अत्याचार और अनैतिकता के खिलाफ खड़े होने की प्रेरणा देता है, चाहे इसके लिए कितनी भी बड़ी कुर्बानी क्यों न देनी पड़े। हज़रत इमाम हुसैन का क़याम और उनका बलिदान आज भी हम सभी के लिए एक महान प्रेरणा है और हमें इस्लाम के असली मूल्यों की रक्षा के लिए प्रेरित करता है।

असत्य के आगे नहीं झुके ईमाम हुसैन

कर्बला की कहानी मनुष्य की संवेदना को झकझोर देती है। सत्य के पथिक पर जालिमों ने जो कहर ढाया उसकी याद हर मुहर्रम दे जाता है और आंखें आसुओं से नम हो जाती हैं। तपते रेगिस्तान में जालिमों ने सत्य के पथिकों को दो बूंद पानी भी नहीं पीने दिया, यहां तक कि छह माह के बच्चे पर भी जुल्म ढाया। फिर भी सत्य के पथिक इमाम हुसैन इस्लामी कानून के खिलाफ नहीं गए, जालिमों के मंसूबों के आगे झुके नहीं और सत्य पर अडिग रहे। इंसानियत के इतिहास में जुल्मी यजीद का यह कारनामा एक काला अध्याय माना जाता है।
लगभग चौदह सौ वर्ष पहले हजरत मुहम्मद साहब के नवासे हजरत ईमाम हुसैन जो मदीने में रह रहे थे उनको माबिया के बेटे यजीद ने अपने मदीना के गर्वनर वलीद को खत के द्वारा आदेश दिया कि ईमाम हुसैन से यजीद के नाम पर बैयत (हाथ पर हाथ देना अथवा धार्मिक अगुआ कबूल करना) ले लें। यजीद जबरदस्ती मुसलमानों का खलीफा बन गया था और अपनी दौलत व फौज की ताकत के आधार पर आम आवाम को पैसा देकर, डरा कर व दबाव बना कर बैयत ले रहा था। अर्थात सबसे मनवा रहा था कि यजीद तमाम मुस्लमानों का खलीफा है और मुस्लमानों के नबी हजरत मुहम्मद साहब का उत्तराधिकारी है। खलीफा मान लिये जाने से मुस्लमानों में यह मान लिया जाता था कि खलीफा अल्लाह का नुमाइंदा (प्रतिनिधि)है। वह जो भी कहता और करता है वह अल्लाह के हुक्म से कहता व करता है और उसकी करनी व कथनी पर सभी मुस्लमानों को जन्नत पाने के लिए चलना पड़ेगा।

यजीद के बारे में सभी इतिहासकार व मुसलमान यह मानते हैं कि यजीद लोगों पर काफी जुल्म ढ़ाता था उसके राज्य में औरतें भी महफूज नहीं थी और लोग उसके खिलाफ सर नहीं उठा सकते थे। यजीद ने ही मदीना के अपने गर्वनर वलीद को आदेश दिया था कि ईमाम हुसैन उसके नाम की बैयत ले और नहीं मानने पर उनका कत्ल कर दिया जाय।
सन 60 हिजरी में वलीद ने ईमाम हुसैन को अपने दारूल अमारा (खलीफा का महल) बुलाया। जिस पर ईमाम हुसैन अपने 18 बनी हाशिम जवानों के साथ रात ही के समय दारूल अमारा पहुंचे मगर ईमाम हुसैन अपने जवान भाई अब्बास, बेटे अली अकबर व अन्य को अमारा के बाहर रह कर अपनी तेज आवाज आने तक का इंतजार करने को कह दिये। अमारा के अन्दर वलीद अपने साथ मरवान और अन्य साथियों के साथ बैठा। ईमाम हुसैन को देख कर वलीद ने यजीद का खत दिखाया। जिसपर ईमाम हुसैन ने कहा कि यह बहुत ही अहम मामला है, एक रात दोनों लोग विचार कर लें । कल सुबह हम दरबार-ए-आम में अपना जबाब दे देंगे। वलीद इस बात के लिए तैयार हो गया लेकिन बगल में बैठे मरवान ने वलीद से कहा कि ईमाम हुसैन बैयत ले लें अथवा उनका कत्ल कर दिया जाय क्योंकि इससे बेहतर अवसर नहीं मिलेगा। जिसे सुन ईमाम हुसैन के साथ वाले भी आ गये मगर ईमाम हुसैन ने मना कर दिया। ईमाम हुसैन वापस मदीना आ गये और अपनी बहन को सारी बातें बताई और 28 रजब सन 60 हिजरी को नाना की मजार व मां की कब्र को सलाम करके मदीने की ओर चल दिये।
ईमाम हुसैन का छोटा काफिला मक्के की पाक जमीन पर ठहर गया लेकिन यजीद ने वहां काबा पर हाजियों के वेश में अपने लोगों को ईमाम हुसैन का कत्ल करने को कहा था। इसकी जानकारी मिलने पर ईमाम हुसैन अपने काफिले के साथ काबा से बाहर चले गये और हज की जगह उमरा ही किया।
कूफे के लोगों ने ईमाम हुसैन को खत भेजा कि वह हम लोगों को बचाने के लिए चले। उन्होंने खुद न आकर मुस्लिम को भेज दिया। कूफे के गर्वनर इब्नेज्याद ने मुस्लिम का कत्ल कर दिया। उधर ईमाम हुसैन कूफे की ओर कूच कर रहे थे मगर घटना की जानकारी मिलने के बाद वह कूफे नहीं जाकर कर्बला (इराक) रवाना हो गये। रास्ते में यजीद की फौज उन्हें रोक कर शाम (सीरिया) ले जाना चाही।
इतिहासकार मानते हैं कि रास्ता रोकने वाली फौज के सिपाही और उनके जानवर प्यासे थे जिस पर ईमाम हुसैन ने अपने साथियों को प्यासे को सैराब (इच्छा भर) पानी पिलाने को कह दिया। इसके बाद वह अपने 72 साथियों के साथ दो मुहर्रम सन 61 हिजरी के दिन कर्बला पहुंच गये और वहां अपनी खैमों (शिविर) को नहरेंफुरात के किनारे नसब (लगा) कर दिया। जिसकी जानकारी मिलने पर यजीद ने पीसरेसाद की अगुआई में बड़ी सेना चार मुहर्रम को भेज दिया। ईमाम हुसैन के खेमे में 4 मुहर्रम को ही अंतिम बार पानी आया था। पानी की कमी और फिर न मिलने की आंशका के चलते बड़ों को थोड़ा-थोड़ा और बच्चों को भरपूर पानी दिया जाता था। सातवीं मुहर्रम तक पानी पूरी तरह खत्म हो गया। इसके बाद प्यास से व्याकुल बच्चों की सदाएं खेमों से बाहर आती थीं जो किसी को भी रुला सकती थीं, आज भी उस घटना को सुनकर लोगों की आंखें भर जाती है। लेकिन यजीद की फौजों का दिल नहीं पसीजा। 9 मुहर्रम का दिन गुजर जाने के बाद रात को ईमाम हुसैन पर हमला बोल दिया गया।
10 मुहर्रम को नमाज-ए-सुबह के बाद यजीद की फौज ने तीरों की बौछार करनी शुरू कर दी। सुबह से दोपहर तक पहले हुसैन के दोस्तों ने फिर भाई अब्बास ने अपनी कुर्बानी दी। इसके बाद ईमाम हुसैन ने यजीद की सेनाओं को अपना सजरा बता दिया। जिस पर वह लोग उनका भी कत्ल कर दिये। ईमाम हुसैन के बीमार बेटे जनाब आबिद को बन्दी बना कर शमा ले गये। यह बात आम लोगों को पता चलने में लगभग एक साल 40 दिन लग गए। बात जब अवाम को पता चली तो यहतेजाज और विद्रोह होने लगा तो डरकर यजीद ने आबिद व उनके साथियों को रिहा कर दिया। इस तरह से इमामी फौज का लुटा हुआ काफिला रिहाई के बाद चंद दिन सीरिया में रहने के बाद कर्बला होते हुए मदीना पहुंचा।


लेखक- संतोष गुप्ता

इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के क़ियाम की वजह

हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने अपने ज़माने की हुकूमत के ख़िलाफ़ जो क़ियाम किया, उसकी बहुत सी वजहें हैं। लेकिन हम यहाँ पर उनमें से सिर्फ़ ख़ास ख़ास वजहों का ही ज़िक्र कर रहे हैं।
1-       ख़िलाफ़त पर फ़ासिद लोगों का क़ब्ज़ा
उम्मत की इमामत व रहबरी एक पाको पाकीज़ा व इलाही ओहदा है, यह ओहदा हर इंसान के लिए नही है। लिहाज़ा इमाम में ऐसी सिफ़तों का होना ज़रूरी है जो उसे अन्य लोगों से मुमताज़(श्रेष्ठ) बनायें ।
अक़्ल व रिवायतें इस बात को साबित करती हैं कि इमामत व ख़िलाफ़त का मक़सद समाज से बुराईयों को दूर कर के अदालत (न्याय) को स्थापित करना और लोगों के जीवन को पवित्र बनाना है। यह उसी समय संभव हो सकता है जब इमामत का ओहदा लायक़, आदिल व हक़ परस्त इंसान के पास हो। कोई समाज उसी समय अच्छा व सफ़ल बन सकता है जब उसके ज़िम्मेदार लोग नेक हों। इस बारे में हम आपके सामने दो हदीसे पेश कर रहे हैं।
पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ने फ़रमाया कि “ दीन को नुक़्सान पहुँचाने वाले तीन लोग हैं, बे अमल आलिम, ज़ालिम व बदकार इमाम और वह जाहिल जो दीन के बारे में अपनी राय दे।”
इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम से और उन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम (स.) से रिवायत की है कि आपने फ़रमाया कि दो गिरोह ऐसे हैं अगर वह बुरे होंगे तो उम्मत में बुराईयाँ फैल जायेंगी और अगर वह नेक होंगे तो उम्मत भी नेक होगी। आप से पूछा गया कि या रसूलल्लाह वह दो गिरोह कौन हैं ? आपने जवाब दिया कि उम्मत के आलिम व हाकिम।
मुहम्मद ग़िज़ाली मिस्री ने बनी उमैय्याह के समय में हुकूमत में फैली हुई बुराईयों को इस तरह बयान किया है।
·         ख़िलाफ़त बादशाहत में बदल गयी थी।
·         हाकिमों के दिलों से यह एहसास ख़त्म हो गया था, कि वह उम्मत के ख़ादिम हैं। वह निरंकुश रूप से हुकूमत करने लगे थे और जनता को हर हुक्म मानने पर मजबूर करते थे।
·         कम अक़्ल, मुर्दा ज़मीर, गुनाहगार, गुस्ताख़ और इस्लामी तालीमात से ना अशना लोग ख़िलाफ़त पर क़ाबिज़ हो गये थे।
·         बैतुल माल (राज कोष) का धन उम्मत की ज़रूरतों व फ़क़ीरों की आवश्यक्ताओं पर खर्च न हो कर ख़लीफ़ा, उसके रिश्तेदारों व प्रशंसको की अय्याशियों पर खर्च होता था।
·         तास्सुब, जिहालत व क़बीला प्रथा जैसी बुराईयाँ, जिनकी इस्लाम ने बहुत ज़्यादा मुख़ालेफ़त की थी, फिर से ज़िन्दा हो उठी थीं। इस्लामी भाई चारा व एकता धीरे धीरे ख़त्म होती जा रही थी। अरब विभिन्न क़बीलों में बट गये थे। अरबों और अन्य मुसलमान के मध्य दरार पैदा हो गयी थी। बनी उमैय्याह ने इसमें अपना फ़ायदा देखा और इस तरह के मत भेदों को और अधिक फैलाया, एक क़बीले को दूसरे क़बीले से लड़ाया। यह काम जहाँ इस्लाम के उसूल के ख़िलाफ़ था वहीं इस्लामी उम्मत के बिखर जाने का कारण भी बना।
·         चूँकि ख़िलाफ़त व हुकूमत ना लायक़, बे हया व नीच लोगों के हाथों में पहुँच गई थी लिहाज़ा समाज से अच्छाईयाँ ख़त्म हो गयी थीं।
·         इंसानी हुक़ूक (आधिकारों) व आज़ादी का ख़ात्मा हो गया था। हुकूमत के लोग इंसानी हुक़ूक़ का ज़रा भी ख़्याल नही रखते थे। जिसको चाहते थे क़त्ल कर देते थे और जिसको चाहते थे क़ैद में डाल देते थे। सिर्फ़ हज्जाज बिन यूसुफ़ ने ही जंग के अलावा एक लाख बीस हज़ार इंसानों को क़त्ल किया था।
अखिर में ग़ज़ाली यह लिखते हैं कि बनी उमैय्याह ने इस्लाम को जो नुक़्सान पहुँचाया वह इतना भंयकर था, कि अगर किसी दूसरे दीन को पहुँचाया जाता तो वह मिट गया होता।
2   बिदअतों का फैलना
बिदअत क्या है?
अपनी तरफ़ से शरीयत में किसी ऐसी चीज़ को शामिल करना जिसके बारे में साहिबाने शरीयत की तरफ़ से कोई नस न हो, बिदअत कहलाता है।
अफ़सोस है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के बाद दीन में बिदअतें फैलनी शुरू हो गईं और मुआविया बिन अबु सुफ़यान के समय में तो बिदअतें अपनी चरम सीमा पर पहुँच गयी थीं।
  मुआविया के ज़रिये फैलने वाली बिदअतें और दीन मुखालिफ़ वह काम जिनको वह खुले आम अंजाम देता था इस तरह हैं।
1)       शराब पीना। (अल ग़दीर जिल्द न. 10 पेज न. 179)
2)       रेशमीन कपड़े पहनना। (अल ग़दीर जिल्द न. 10 पेज न. 216)
3)       सोने चाँदी के बरतनों का इस्तेमाल करना। (अल ग़दीर जिल्द न. 10 पेज न. 216)
4)       गाना सुनना। ( शरहे इब्ने अबिल हदीद जिल्द न. 16 पेज न. 161)
5)       इस्लामी क़ानूनों के खिलाफ़ फैसले सुनाना। (अल ग़दीर जिल्द न. 10 पेज न. 196)
6)       चोर को सज़ा न देना। (अल ग़दीर जिल्द न. 10 पेज न. 214)
7)       ज़िना (अनैतिक सम्बन्ध) द्वारा पैदा होने वाले बच्चे को सही मानना। (शरहे इब्ने अबिल हदीद जिल्द न.16 पेज न.187)
8)       हज़रत अली अलैहिस्सलाम के साथ जंग करना, जिसमें पिचहत्तर हज़ार लोगों की जानें गयीं। (मरूजुज़्जहब जिल्द न. 2 पेज न.3)
9)       हज़रत अली अलैहिस्सलाम के शियों के क़त्ले आम के लिए फौजों को भेजना। (अल ग़दीर जिल्द न.11 पेज न. 16,17,18)
10)   मालिके अशतर को क़त्ल करना। (मरूजुज़्जहब जिल्द न. 2 पेज न.409)
11)   हुज्र बिन अदि व उनके साथियों को क़त्ल करना। (अल ग़दीर जिल्द न.11 पेज न. 52)
12)   उमर बिन अलहम्क़ को क़त्ल करना।(अल ग़दीर जिल्द न.11पेज न. 41)
13)   मिस्र पर हमला करना और हज़रत अली अलैहिस्सलाम के नुमाइंदे मुहम्मद बिन अबु बकर को क़त्ल करना। (मरूजुज़्जहब पेज न. 218)
14)   हज़रत अली अलैहिस्सलाम के शियों का क़त्ले आम करना। (अल ग़दीर जिल्द न.11पेज न. 28)
15)   हज़रत अली अलैहिस्सलाम की मुख़ालेफ़त में जाली हदीसें लिखवाना। (अल ग़दीर जिल्द न.11पेज न. 28)
16)   उसमान की तारीफ़ में जाली हदीसें घड़वाना।(अल ग़दीर जिल्द न.11पेज न. 28)
17)   नमाज़े जुमा के ख़ुत्बों में हज़रत अली अलैहिस्सलाम पर लअन कराना। (अल ग़दीर जिल्द न.10पेज न. 257)
18)    हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम को जहर खिलवा कर शहीद कराना। ( मरूजुज़्ज़हब जिल्द न. 2 पेज न. 427)
19)   ग़ैर क़ानूनी तौर पर यज़ीद को अपना जानशीन (उत्तराधिकारी) बनाना। (कामिल इब्ने असीर जिल्द न. 3 पेज न. 503 से 511 तक)
20)   जुमे की नमाज़ बुध के दिन पढ़ा देना। (( मरूजुज़्ज़हब जिल्द न. 3 पेज न.32)
21)    इस्लामी ख़िलाफ़त को मोरूसी (वंशानुगत) बना देना।
3   अख़लाक़ के ख़त्म हो जाने और लोगों के जिहालित की तरफ़ पलटने    का ख़तरा
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के क़ियाम की एक ख़ास वजह यह भी थी कि उम्मत के बीच से अख़लाक़ ख़त्म होता जा रहा था और उसकी जगह पर बुराईयाँ फैल रही थीं। पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ने अपनी पैग़म्बरी के पहले दिन से ही जिहालत को ख़त्म करने और अख़लाक़ व इल्म फैलाने का काम शुरू किया था। पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ने इल्म, ईमान, तक़वे, शुजाअत, जिहाद, अमानतदारी, रूह की पाकीज़गी, आज़ादी और कुरबानी का दर्स दिया। आपने शिर्क को यकता परस्ती से बदला, जातीय व क़बीले के भेद भावों को ख़त्म किया। ज़ुल्म व अन्याय की मुख़ालेफ़त की, आपसी मत भेदों को समाप्त करा के भाईचारे की नीव डाली। अर्थात जिहालत के समाज व क़ानूनों को ख़त्म कर के नये इस्लामी व अख़लाक़ी समाज की स्थापना की। पैग़म्बरे इस्लाम के समय में यह काम तेज़ी से चलता रहा और आपके बाद भी यह सिलसिला जारी रहा। परन्तु उसमान के समय से इस्लामी समाज अख़लाकी तौर पर नीचे आने लगा और बनी उमैय्याह के समय में तो इसकी रफ़्तार और तेज़ हो गई थी। जाहिलियत के समय की मान्यताएं फिर से जीवित हो उठीं थीं। ख़लीफ़ा ऐशो आराम की जिन्दगी बसर करने लगे थे, समाज में फैले ज़ुल्म व बे अदालती की तरफ़ कोई ध़्यान नही दिया जाता था। हक़ की जगह बातिल ने ले ली थी। हक़ को कुचला जाने लगा था और सादी ज़िन्दगी ऐश में बदल गई थी। ख़लीफ़ा सांसारिक मोह माया के जाल में फस गये थे।
पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के ज़िन्दगी के समाज में और बनी उमैय्याह के हुकूमत के दौर में जो फ़र्क़ पैदा हो गया था उसको इस तरह बयान किया जा सकता है।
1)       पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के दौर में सब लोगों का ईमान व एतेक़ाद आपकी ज़ात पर था। मगर बनी उमैय्यह के दौर में लोग ख़लीफ़ाओं को शक की नज़र से देखने लगे थे।
2)       पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के दौर में हुकूमत के कार कुनान अम्मार, सलमान, अबुज़र मिक़दाद जैसे नेक लोग थे। मगर बनी उमैय्यह के दौर में हुकूमत के कामों कों वलीद बिन उक़बा, सअद बिन अब्दुल्लाह और ज़ियाद जैसे लोग देख रहे थे। वलीद बिन उक़बा (यह एक फ़ासिक़ इंसान था। आयते नबा इसी के बारे में नाज़िल हुई थी।) सअद बिन अब्दुल्लाह (इसने पैग़म्बर (स.) की तरफ़ से झूठ बोला था) और ज़ियाद (यह ज़िना के ज़रिये (अनैतिक सम्बन्धों के आधार पर) पैदा हुआ था।)
3)       पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के दौर में लोग भूखे रह कर, पेट से पत्थर बांध कर ख़न्दक़े खोदते थे और इस्लाम की हिफ़ाज़त के लिए अपनी जान क़ुरबान करते थे। मगर बनी उमैय्यह के दौर में ख़लीफ़ा इस्लामी फ़तूहात(सफ़लताओं) से मिलने वाली दौलत के सहारे महलों में कनीज़ों के साथ ऐशो आराम की ज़िन्दगी बसर करने लगे थे।
4)       पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के दौर में रात को मुसलमानों के घरों से क़ुरआन की तिलावत व मुनाजात की आवाज़े आती थीं। मगर बनी उमैय्यह के दौर में मुसलमानों के घरों से गाने बजाने, औरतों के नाचने, तालियाँ पीटने और पायलों की झंकार की आवाज़े सुनाई देने लगी थीं।
5)       पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के दौर में हुकूमत के कार कुनों (कर्मचारियों) को चुनने का आधार अख़लाक़ व तक़वा था। मगर बनी उमैय्यह के दौर में हुकूमत के कारकुनों को चापलूसी के आधार पर चुना जाने लगा था।
6)       पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के दौर में समाज में न्याय व अख़लाक़ की गूँज थी। मगर बनी उमैय्यह के दौर में चारो तरफ़  ज़ुल्म व अन्याय के बादल मंडला रहे थे।
7)       पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के दौर में अम्र बिल मारूफ़ व नही अनिल मुनकर [1] की वजह से समाज पाको पाकीज़ा था। मगर बनी उमैय्यह के दौर में हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम जैसी अज़ीम शख़सियत को भी अम्र बिल मारूफ़ व नही अनिल मुनकर की वजह से निशाना बनाया गया।
सवाल यह है कि यह सब बदलाव समाज में कौन लाया ?
बनी उमैय्यह इस्लाम से बदला ले रहे थे।
इस्लाम से पहले ,अबुसुफ़यान (यज़ीद का दादा) जिहालत की मान्यताओं, बुत परस्ती व शिर्क का सबसे बड़ा समर्थक था। जब पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ने बुत परस्ती और समाज में फैली बुराईयों को दूर करने का काम शुरू किया, तो अबु सुफ़यान को हार का सामना करना पड़ा। अबुसुफ़यान, उसकी बीवी व उसके बेटे जहाँ तक हो सकता था पैग़म्बरे इस्लाम (स.) को दुखः पहुँचाते रहे। उन्होंने इस्लाम को मिटाने के लिए जंगे बद्र व ओहद की नीव डाली। जंगे बद्र में अबुसुफ़यान के तीन बेटे इस्लाम की मुख़ालेफ़त में लड़े, मुआविया, हनज़ला व अम्र, हनज़ा हज़रत अली अलैहिस्सलाम के हाथों क़त्ल हुआ, अम्र क़ैदी बना और मुआविया मैदान से भाग गया था। यह जब मक्के पहुँचा तो इसके पैर भागने की वजह से इतने सूज गये थे कि इसने दो महीने तक अपना इलाज कराया था। अबु सुफ़यान की बीवी जंगे ओहद के ख़त्म होने के बाद मैदान में आयी। इस्लामी शहीदों के गोश्त के टुकड़ों को जमा करके उनसे हार बनाया और अपने गले में पहना। पैग़मेबरे इस्लाम (स.) के चचा हज़रत हमज़ा अलैहिस्सलाम के मुर्दा ज़िस्म से उनके कलेजे को निकाल कर चबाने की कोशिश की।
फ़तहे मक्का के बाद इसी अबु सुफ़यान व इसकी बीवी ने क़त्ल होने से बचने के लिए ज़ाहिरी तौर पर इस्लाम क़बूल कर लिया। मगर पूरी जिन्दगी उन दोनों के दिलों से इस्लाम दुश्मनी न निकल सकी और वह इसी हालत में मर गये। उन दोनों के बाद उनका बेटा मुआविया इस्लाम की जड़ों को काटने, इस्लाम की शक्ल को बदलने, जिहालत के निज़ाम और बनी उमैय्यह की रविश को फिर से ज़िन्दा करने की कोशिशे करता रहा।
मुआविया इस्लाम को मिटाना चाहता था।
मसऊदी ने मुवफ़्फ़क़यात इब्ने बिकार नामक किताब से मतरफ़ बिन मुग़ैरह बिन शेबा के हवाले से लिखा है कि, वह कहता है कि मेरा बाप का मुआविया के पास उठना बैठना था। वह हमेशा उससे मुलाक़ात के लिए जाया करता था। कभी कभी मैं भी उसके साथ मुआविया के पास जाया करता था। वह जब मुआविया के पास से घर पलट कर आता था तो अक्सर उसकी चालाकी की बातें सुनाया करता था। लेकिन एक रात जब वह मुआविया से मुलाक़ात के बाद घर पलटा तो इतना ग़मगीन था कि उसने शाम का खाना भी नही खाया। मैनें पूछा कि आज आप इतने ग़मज़दा क्यों हैं ? उसने जवाब दिया कि मैं सबसे ज़्यादा ख़बीस इंसान के पास से आ रहा हूँ। मैने आज मुआविया से बातें की और उससे कहा कि अब तू बूढ़ा हो गया है तेरी तमाम तमन्नायें पूरी हो चुकी हैं। अब तू इंसाफ़ से काम ले और नेक काम कर अपने भाईयों (बनी हाशिम) के साथ अहसान व सिलहे रहम कर। अल्लाह की क़सम अब उनके पास ऐसी कोई चीज़ नही है जिससे तुझे ख़तरा हो। मुआविया ने कहा कि मैं हर गिज़ ऐसा नही कर सकता। इसके बाद उसने अबु बकर, उमर व उसमान का ज़िक्र किया और कहा कि इनमें से हर एक ने हुकूमत की लेकिन मरने के बाद उन सब का नामों निशान मिट गया। लेकिन अभी तक पाँचों वक़्त अज़ान में मुहम्मद का नाम लिया जाता है। मैं चाहता हूँ कि यह सब भी ख़त्म हो जाये। यानी मुआविया की दिली तमन्ना यह थी कि इस्लाम व पैग़म्बरे इस्लाम का नामों निशान मिट जाये।  
4   अदालत का ख़त्म होना और ज़ुल्म का बढ़ जाना
अदालत समाज की जान है। जिस समाज में अदालत न हो वह कभी भी फूल फल नही सकता। जब किसी समाज से अदालत ख़त्म हो जाती है तो वह समाज बिखर जाता है और अदालत समाज से उस समय ख़त्म होती है जब ख़ुद हाकिम ज़ुल्मो सितम करने लगें। इस्लामी समाज में वैसे तो पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के बाद से ही ज़ुल्मो सितम शुरू हो गये थे लेकिन मुआविया बिन अबु सुफ़यान के समय में यह ज़ुल्मों सितम अपनी चरम सीमा पर पहुँच गये थे। मुआविया बिन अबु सुफ़यान ने जो अपने शासन काल में ज़ुल्म किये उनको दो भागों में बाटा जा सकता है।
मुआविया के ज़ुल्म हज़रत अली अलैहिस्सलाम की ज़िन्दगी में
मुआविया ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम की ज़िन्दगी में जो ज़ुल्म किये उनका ख़ुलासा इस तरह किया जा सकता है।
1)       सन् 37 हिजरी क़मरी से मुआविया ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम की हुकूमत के इलाक़ो में अपनी फ़ौज की छोटी छोटी टुकड़ियों को भेजना शुरू कर दिया था, ताकि वह लोगों का क़त्ले आम करें, उनके घरों को जलायें, उनकी खेतियों को बर्बाद करें और कुछ लोगों को कैदी बना कर वापस पलटें।
2)       मुआविया ने जब अपने एक साथी सुफ़यान बिन औफ़ को अम्बार पर हमला करने के लिए भेजा, तो उसको हुक्म दिया कि जो भी तेरे सामने आये उसे क़त्ल कर देना और जो चीज़ भी तुझे दिखयी दे उसे तहस नहस कर देना। 
3)       मुआविया ने अब्दुल्लाह बिन मसअद को हुक्म दिया कि यहाँ से मक्के तक जो भी बदवी तुझे ज़कात न दे उसे क़त्ल कर देना।
4)       मुआविया ने बुस्र बिन इरतात को हुक्म दिया कि पूरे इस्लामी हुकूमत का दौरा कर और जहाँ भी कोई अली का चाहने वाला मिले उसे क़त्ल कर देना।
मुआविया के ज़ुल्म हज़रत अली अलैहिस्सलाम की शहादत के बाद    
मुआविया ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम के बाद जो ज़ुल्मो सितम किये उनका ख़ुलासा यह है।
1)       हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम को शहीद करना।
2)       उमर बिन हम्क़, हुज्र बिन अदी व उनके साथियों को क़त्ल करना। यह ऐसे मोमिन थे जो हमेशा ज़िक्रे ख़ुदा किया करते थे और उनके माथों पर सजदों के निशान मौजूद थे।
3)       ज़ियाद को अपने बाप अबुसुफ़यान की औलाद घोषित करना और उसे कूफ़े का गवर्नर बनाना। हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने जो ख़त मुआविया को लिखा था उसमें यही लिखा था कि तूने ज़ियाद को उम्मते मुसलेमाँ पर हाकिम बना दिया ताकि वह आज़ाद लोगों को क़त्ल करे, उनके हाथों पैरों को काटे और खजूर के पेड़ों पर उन्हें फाँसी दे। इब्ने अबिल हदीद ने लिखा है कि ज़ियाद ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम के चाहने वालों को जहाँ भी पाया क़त्ल किया, उनके हाथों पैरो को काटा, उनको फाँसी पर लटकाया और जो बचे उनको डरा धमका कर इराक़ से बाहर निकाल दिया। यहाँ तक कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम के चाहने वालों में से एक भी मशहूर आदमी इराक़ में न रहा।  
4)       मुआविया ने अपनी पूरी हुकूमत में यह ऐलान कराया कि अली और उनके खानदान पर लानत की जाये। अल्लामा अमीनी ने लिखा है कि हज़रत अली अलैहिस्साम पर लअन एक सुन्नत बना गया था और सत्तर हज़ार मिम्बरों से बनी उमैय्या की हुकूमत में आप पर लअन होता था।
5)       यज़ीद के लिए लोगों से बैअत लेना। मुआविया के तमाम ज़ुल्मो सितम एक तरफ़ और यह ज़ुल्म एक तरफ़। मुआविया ने यह काम कर के इस्लामी ख़िलाफ़त की बाग डोर एक ऐसे नालायक़ जवान के हाथों में सौँप दी जो शराबी, जूवे बाज़, बे दीन, आशिक़ मिजाज़ और कुत्तों के साथ खेलने वाला था।
हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने जब यह सब कुछ होते देखा तो इसकी मुख़ालेफ़त में मुआविया को ख़त लिखा और उसे इन कामों पर तम्बीह की। जब मुआविया इस दुनिया से गया और हुकूमत यज़ीद के हाथों में पहुँची तो अब नसिहतों के दरवाज़े बन्द हो चुके थे। समाज में चारो तरफ़ ज़ुल्मो सितम फैल चुका था। यज़ीद ने तख़्ते हुकूमत पर बैठते ही मदीने के गवर्नर को ख़त लिखा कि हुसैन इब्ने अली से मेरे लिए बैअत ले ले। मदीने के गवर्नर वलीद ने यज़ीद का यह पैग़ाम इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम तक पहुँचाया इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया ऐ वलीद!! हम पैग़म्बर (स.) के अहले बैत हैं , हम मादने रिसालत हैं, हमारा घर वह है जिसमें फ़रिश्ते आते जाते हैं, अल्लाह का फ़ैज़ हम से शुरू होता है और पर ही तमाम होता है।
यज़ीद शराब पीने वाला, खुले आम गुनाह करने वाला और लोगों को बे गुनाह क़त्ल करने वाला है लिहाज़ा मुझ जैसा इंसान यज़ीद की बैअत नही कर सकता।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने अपने इस बयान से सभी चीज़ों को रौशन कर दिया और अपने क़रीब तरीन अज़ीज़ों के साथ इस ज़ुल्मों सितम का मुक़ाबला करने के लिए निकल पड़े

यज़ीद के विरूद्ध हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का क़ियाम व उसके उद्देश्य

सन् 60 हिजरी क़मरी में मुआविया के मरने के बाद उसका बेटा यज़ीद शाम के सिहासन पर बैठा और उसने स्वयं को पैग़म्बर का उत्तराधिकारी घोषित किया। सत्ता पाने के बाद उसने इस्लामी मान्याताओं को बदलने और क़ुरआन के आदेशों का विरोध करने के साथ साथ मानवता विरोधी कार्य करने भी शुरू कर दिये। इमाम हुसैन ने जब यज़ीद को इस्लाम विरोधी कार्य करते देखा तो सन् (61) हिजरी में यज़ीद के विरूद्ध क़ियाम (क़ियाम अर्थात किसी के विरूद्ध संघर्ष करना) किया। हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने अपने क़ियाम के उद्देश्यों को आपने प्रवचनो में इस प्रकार स्पष्ट किया कि----
1—             जब शासकीय यातनाओं से तंग आकर हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम मदीना छोड़ने पर मजबूर हो गये तो उन्होने अपने क़ियाम के उद्देश्यों को इस प्रकार स्पष्ट किया। “ मैं अपने व्यक्तित्व को चमकाने या सुखमयी जीवन यापन करने या उपद्रव फैलाने के लिए क़ियाम नहीं कर रहा हूँ। बल्कि मैं केवल अपने नाना (पैगम्बरे इस्लाम) की उम्मत (इस्लामी समाज) में सुधार हेतु जा रहा हूँ तथा मेरा निश्चय मनुष्यों को अच्छाईयों की और बुलाना व बुराईयों से रोकना है। मैं अपने नाना पैगम्बर व अपने पिता इमाम अली की शैली पर चलूँगा। ”
2—             एक दूसरे अवसर पर कहा कि “ ऐ अल्लाह तू जानता है कि हम ने जो कुछ किया वह शासकीय शत्रुता या सांसारिक मोहमाया के कारण नहीं किया। बल्कि हमारा उद्देश्य यह है कि तेरे धर्म की निशानियों को यथा स्थान पर पहुँचाए तथा तेरी प्रजा के मध्य सुधार करें ताकि तेरी प्रजा अत्याचारियों से सुरक्षित रह कर तेरे धर्म के   सुन्नत व वाजिब आदेशों का पालन कर सके। ”
3—             जब आप की भेंट हुर पुत्र यज़ीदे रिहायी की सेना से हुई तो आपने कहा कि    “ ऐ लोगो अगर तुम अल्लाह से डरते हो और हक़ को   हक़दार के पास देखना चाहते हो, तो यह कार्य अल्लाह को प्रसन्न करने के लिए बहुत अच्छा है। हम अहलेबैत ख़िलाफ़त पद के, अन्य अत्याचारी व व्याभीचारी दावेदारों की अपेक्षा सबसे अधिक हक़दार हैं। ”
4—             एक अन्य स्थान पर कहा कि हम अहलेबैत शासन के उन लोगों से अधिक हक़दार हैं जो शासन कर रहे है।  
         इन चार कथनों में जिन उद्देश्यों की और संकेत किया गया है वह इस प्रकार हैं-------
1-      इस्लामी समाज में सुधार।
2-      जनता को अच्छे कार्य करने का उपदेश।
3-      जनता को बुरे कार्यो से मना करना।
4-      आदरनीय पैगम्बर व आदरनीय अली की कार्य शैली को किर्यान्वित करना।
5-      समाज को शांति व सुरक्षा प्रदान करना।
6-      अल्लाह के आदेशो के पालन हेतु भूमिका तैयार करना।
नोट--यह समस्त उद्देश्य उसी समय प्राप्त हो सकते हैं जब शासन की बाग़ डोर स्वंय इमाम के हाथो में हो जो कि इसके वास्तविक अधिकारी हैं। अतः इमाम ने स्वंय कहा भी है कि शासन हम अहलेबैत का अधिकार है न कि शासन कर रहे उन लोगों का जो अत्याचारी व व्याभीचारी हैं।  

इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के क़ियाम के परिणाम

1-      बनी उमैया के वह धार्मिक षड़यन्त्र छिन्न भिन्न हो गये जिनके आधार पर उन्होंने अपनी सत्ता को शक्ति प्रदान की थी।
2-      बनी उमैया के उन शासकों को लज्जित होना पडा जो सदैव इस बात के लिए तत्पर रहते थे कि इस्लाम से पूर्व के मूर्खता पूर्ण प्रबन्धो को क्रियान्वित किया जाये।
3-      कर्बला के मैदान में इमाम हुसैन की शहादत से मुसलमानों के दिलों में यह चेतना जाग्रत हुई कि हमने इमाम हुसैन की सहायता न करके बहुत बड़ा पाप किया है।
इस चेतना से दो चीज़े उभर कर सामने आयीं, एक तो यह कि इमाम की सहायता न करके जो गुनाह (पाप) किया उसका परायश्चित होना चाहिए। दूसरे यह कि जो लोग इमाम की सहायता में बाधक बने थे, उनकी ओर से लोगों के दिलो में घृणा व द्वेष उत्पन्न हो गया।
इस गुनाह के अनुभव की आग लोगों के दिलों में निरन्तर भड़कती चली गयी। तथा बनी उमैया से बदला लेने व अत्याचारी शासन को उखाड़ फेकने की भावना प्रबल होती गयी।
अतः तव्वाबीन   नामक समूह ने अपने इसी गुनाह के परायश्चित के लिए क़ियाम किया ताकि इमाम की हत्या का बदला ले सकें।
4-      इमाम हुसैन के क़ियाम ने लोगों के अन्दर अत्याचार का विरोध करने के लिए
प्राण फूँक दिये। इस प्रकार इमाम के क़ियाम व कर्बला के खून ने हर उस बाँध को तोड़ डाला जो इन्क़लाब (क्रान्ति) के मार्ग में बाधक था।
5-      इमाम के क़ियाम ने जनता को यह शिक्षा दी कि कभी भी न किसी के सम्मुख झुको न अपने व्यक्तित्व को बेंचो । शैतानी ताकतों से लड़ो व इस्लामी सिद्धान्तों को क्रियान्वित करने के लिए प्रत्येक चीज़ को नयौछावर कर दो।
6-      समाज के अन्दर यह नया दृष्टिकोण पैदा हुआ कि अपमान जनक जीवन से सम्मान जनक मृत्यु श्रेष्ठ है।

मुहर्रम : हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक

हजरत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम (अ.ल.) की कुर्बानी हमें अत्याचार और आतंक से लड़ने की प्रेरणा देती है। इतिहास गवाह है कि धर्म और अधर्म के बीच हुई जंग में जीत हमेशा धर्म की ही हुई है। चाहे राम हों या अर्जुन व उनके बंधु हों या हजरत पैगंबर (सल्ल.) के नवासे हजरत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम, जीत हमेशा धर्म की ही हुई है।

चाहे धर्म की ओर से लड़ते हुए इनकी संख्या प्रतिद्वंद्वी के मुकाबले कितनी ही कम क्यों न हो। सत्य के लिए जान न्योछावर कर देने की जिंदा मिसाल बने हजरत इमाम हुसैन (अ.ल.) ने तो जीत की परिभाषा ही बदल दी। कर्बला में जब वे सत्य के लिए लड़े तब सामने खड़े यजीद और उसके 40,000 सैनिक के मुकाबले ये लोग महज 123 (72 मर्द-औरतें व 51 बच्चे थे)। इतना ही नहीं, इमाम हुसैन (अ.ल.) के इस दल में तो एक छह माह का बच्चा भी शामिल था)।

सत्य पर, धर्म पर मर मिटने का इससे नायाब उदाहरण विश्व इतिहास में कहीं और ढूँढ़ना कठिन है। इन्हें अपनी शहादत का पता था। ये जानते थे कि आज वह कुर्बान होकर भी बाजी जीत जाएँगे। युद्ध एकतरफा और लोमहर्षक था। यजीद की फौज ने बेरहमी से इन्हें कुचल डाला। अनैतिकता की हद तो यह थी कि शहीदों की लाशों को दफन तक न होने दिया।

इतिहासकार मसूदी ने उल्लेख किया है कि इमाम हुसैन (अ.ल.) छह वर्ष की उम्र तक हजरत पैगंबर (स.) के साथ रहे तथा इस समय सीमा में इमाम हुसैन (अ.स.) को सदाचार सिखाने, ज्ञान प्रदान करने तथा भोजन कराने का उत्तरदायित्व स्वयं पैगंबर (स.) के ऊपर था।
ND
पैगंबर (स.) इमाम हुसैन (अ.स.) से अत्याधिक प्रेम करते थे। इमाम हुसैन (अ.स.) से प्रेम के संबंध में पैगंबर (स.) के इस प्रसिद्ध कथन का शिया व सुन्नी दोनों ही संप्रदायों के विद्वानों ने उल्लेख किया है कि पैगंबर (स.) ने कहा कि हुसैन मुझसे है और मैं हुसैन से हूँ। अल्लाह तू उससे प्रेम कर जो हुसैन से प्रेम करे। हजरत पैगंबर (स.) के स्वर्गवास के बाद हजरत इमाम हुसैन (अ.स.) तीस वर्षों तक अपने पिता हजरत इमाम अली (अ.स.) के साथ रहे और समस्त घटनाओं व विपत्तियों में अपने पिता का हर प्रकार से सहयोग किया।

हजरत इमाम अली (अ.स.) की शहादत के बाद दस वर्षों तक अपने बड़े भाई इमाम हसन के साथ रहे तथा सन् पचास (50) हिजरी में उनकी शहादत के पश्चात दस वर्षों तक घटित होने वाली घटनाओं का अवलोकन करते हुए मुआविया का विरोध करते रहे। जब सन् साठ (60) हिजरी में मुआविया का देहांत हो गया तथा उसके बेटे यजीद ने गद्दी संभाली और हजरत इमाम हुसैन (अ.स.) से बैअत (अधीनता स्वीकार करना) करने के लिए कहा, तो आपने बैअत करने से मना कर दिया और इस्लाम की रक्षा के लिए वीरतापूर्वक लड़ते हुए शहीद हो गए।

हजरत इमाम हुसैन (अ.स.) ने सन् 61 हिजरी में यजीद के विरुद्ध कियाम (किसी के विरुद्ध उठ खड़ा होना) किया। उन्होंने कहा, 'मैं अपने व्यक्तित्व को चमकाने या सुखमय जीवनयापन करने या उपद्रव फैलाने के लिए कियाम नहीं कर रहा हूँ बल्कि केवल अपने नाना (पैगंबर), इस्लाम की उम्मत (इस्लामी समाज) में सुधार के लिए जा रहा हूँ तथा मेरा निश्चय मनुष्यों को अच्छाई की ओर बुलाना व बुराई से रोकना है। मैं अपने नाना पैगंबर (स.) व अपने पिता इमाम अली (अ.स.) की सुन्नत (शैली) पर चलूँगा।
SUNDAY MAGAZINE
कर्बला के मैदान में इमाम हुसैन (अ.स.) की शहादत से मुसलमानों के दिलों में यह चेतना जाग्रत हुई कि हमने इमाम हुसैन (अ.स.) की सहायता न करके बहुत बड़ा पाप किया है। इस गुनाह के अनुभव की आग लोगों के दिलों में निरंतर भड़कती चली गई और अत्याचारी शासन को उखाड़ फेंकने की भावना प्रबल होती गई। समाज के अंदर एक नया दृष्टिकोण पैदा हुआ कि अपमानजनक जीवन से सम्मानजनक मृत्यु श्रेष्ठ है।

कहते हैं कि इमाम हुसैन ने यजीद की अनैतिक नीतियों के विरोध में मदीना छोड़ा और मक्का गए। उन्होंने देखा कि ऐसा करने से यहाँ भी खून बहेगा तो उन्होंने भारत आने का भी मन बनाया लेकिन उन्हें घेर कर कर्बला लाया गया और यजीद के नापाक इरादों के प्रति सहमति व्यक्त करने के लिए कहा गया। लेकिन सत्य की राह पर चलने की इच्छा के कारण उनकी शहादत 10 मुहर्रम 61 हिजरी यानी 10 अक्टूबर 680 ईस्वी को हुई।

ऐसे में भारत के साथ कहीं न कहीं इमाम हुसैन की शहादत का संबंध है- दिल और दर्द के स्तर पर। यही कारण है कि भारत में बड़े पैमाने पर मुहर्रम मनाया जाता है। यह पर्व हिंदू-मुस्लिम एकता को एक ऊँचा स्तर प्रदान करता है। फिर उदारवादी शिया संप्रदाय के विचार धार्मिक सहिष्णुता की महान परंपरा की इस भारत भूमि के दिल के करीब भी हैं। ग्वालियर में जो पाँच हजार ताजिए निकाले जाते हैं उनमें से महज 25 ताजिए ही शिया लोगों के होते हैं बाकी हिंदुओं के होते हैं। पूरे देश में इस तरह के असंख्य उदाहरण मिल जाएँगे। (लेखक शिया प्वाइंट के अध्यक्ष हैं।)
सौजन्य से - नईदुनिया भोपाल

यौमे आशूरा : इमाम का शहादत दिवस

इमाम हुसैन (रअ) दरअसल इंसानियत के तरफदार और इंसाफ के पैरोकार थे। मोहर्रम माह की दसवीं तारीख जिसे यौमे आशूरा कहा जाता है, इमाम हुसैन की (रअ) शहादत का दिवस है। यह समझ लेना जरूरी होगा कि इमाम हुसैन कौन थे और उन्हें क्यों शहीद किया गया। मजहबे इस्लाम (इस्लाम धर्म) के प्रवर्तक और पैगम्बर हजरत मोहम्मद (सल्लाहलाहु अलैहि व सल्लम) के नवासे थे इमाम हुसैन।

इमाम हुसैन के वालिदे- मोहतरम (सम्मानीय पिताजी) 'शेरे-खुदा' (परमात्मा के सिंह) अली (रजि.) हजरत मोहम्मद यानी पैगम्बर साहब के दामाद थे। बीबी फातिमा दरअसल पैगम्बर मोहम्मद (सल्ल.) की बेटी और इमाम हुसैन (रअ) की माताजी (वालदा) थीं।

किस्सा कोताह यह कि हजरत अली (रअ) अरबिस्तान (मक्का-मदीना वाला भू-भाग) के खलीफा हुए यानी मुसलमानों के धार्मिक-सामाजिक राजनीतिक मुखिया हुए। उन्हें खिलाफत (नेतृत्व) का अधिकार उस दौर की अवाम ने दिया था। अर्थात हजरत अली (रजि.) को लोगों ने जनतांत्रिक तरीके यानी आमराय से अपना खलीफा (मुखिया) बनाया था।

हजरत अली के स्वर्गवास के बाद लोगों की राय इमाम हुसैन को खलीफा बनाने की थी, लेकिन अली के बाद हजरते अमीर मुआविया ने खिलाफत पर कब्जा किया। मुआविया के बाद उसके बेटे यजीद ने साजिश रचकर दहशत फैलाकर और बिकाऊ किस्म के लोगों को लालच देकर खिलाफत हथिया ली।
ND
यजीद दरअसल शातिर शख्स था जिसके दिमाग में फितुर (प्रपंच) और दिल में जहर भरा हुआ था। चूँकि यजीद जबर्दस्ती खलीफा बन बैठा था, इसलिए उसे हमेशा इमाम हुसैन (रअ) से डर लगा रहता था। कुटिल और क्रूर तो यजीद पहले से ही था, खिलाफत यानी सत्ता का नेतृत्व हथियाकर वह खूँखार और अत्याचारी भी हो गया।

इमाम हुसैन (रअ) की बैअत (अधीनस्थता) यानी यजीद के हाथ पर हाथ रखकर उसकी खिलाफत (नेतृत्व) को मान्यता देना, यजीद का ख्वाब भी था और मुहिम भी। यजीद दुर्दांत शासक साबित हुआ। अन्याय की आंधी और तबाही के तूफान उठाकर यजीद लोगों को सताता था। यजीद दरअसल परपीड़क था।

यजीद जानता था कि खिलाफत पर इमाम हुसैन का हक है क्योंकि लोगों ने ही इमाम हुसैन के पक्ष में राय दी थी। यजीद के आतंक की वजह से लोग चुप थे। इमाम हुसैन चूंकि इंसाफ के पैरोकार और इंसानियत के तरफदार थे, इसलिए उन्होंने यजीद की बैअत नहीं की।

इमाम हुसैन ने हक और इंसाफ के लिए इंसानियत का परचम उठाकर यजीद से जंग करते हुए शहीद होना बेहतर समझा लेकिन यजीद जैसे बेईमान और भ्रष्ट शासक और बैअत करना मुनासिब नहीं समझा। यजीद के सिपाहियों ने इमाम हुसैन को चारों तरफ से घेर लिया था, नहर का पानी भी बंद कर दिया गया था, ताकि इमाम हुसैन और उनके साथी यहां तक कि महिलाएं और बच्चे भी अपनी प्यास नहीं बुझा सकें। तिश्निगी (प्यास) बर्दाश्त करते हुए इमाम हुसैन बड़ी बहादुरी से ईमान और इंसाफ के लिए यजीद की सेना से जंग लड़ते रहे।

यजीद के चाटुकारों शिमर और खोली ने साजिश का सहारा लेकर प्यासे इमाम हुसैन को शहीद कर दिया। इमाम हुसैन की शहादत दरअसल दिलेरी की दास्तान है, जिसमें इंसानियत की इबारत और ईमान के हरूफ (अक्षर) हैं। समय के संयोग से इस्लाम धर्म के यौमे आशूरा के साथ सनातन धर्म का पर्व गीता जयंती भी है। दोनों सौहार्द का संदेश दे रहे हैं।

Aman Ka Paigaam Imam Husain (A.S) - Video

हुसैन और भारत विश्वनाथ प्रसाद माथुर * लखनवी मुहर्रम , १३८३ हिजरी


हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के पिता हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम व आपकी माता हज़रत फ़तिमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा हैं। आप अपने माता पिता की द्वितीय सन्तान थे। आप हजरत  मोहम्मद  साहेब  के  छोटे  नवासे   भी हैं
हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का जन्म सन् चार  हिजरी क़मरी में शाबान मास की तीसरी  तिथि को पवित्र शहर मदीनेमें हुआ था। इस समय सीमा में  इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को सदाचार सिखाने ज्ञान प्रदान करने तथा भोजन कराने  का उत्तरदायित्व स्वंम पैगम्बर(स.) के ऊपर था।  पैगम्बर(स.)  इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से अत्यधिक प्रेम करते थे। वह उनका छोटा सा दुखः भी सहन नहीं कर पाते थे।  इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से प्रेम के सम्बन्ध में पैगम्बर(स.) के इस प्रसिद्ध कथन का सभी मुसलमान  विद्वानो ने उल्लेख किया है। कि पैगम्बर(स.) ने कहा कि हुसैन मुझसे हैऔर मैं हुसैन से हूँ। अल्लाह तू उससे प्रेम कर जो हुसैन से प्रेम करे ।
आज इमाम हुसैन (अ.स) के जन्म दिन के अवसर पे आप सब को  मुबारकबाद पेश करते हुए , पेश ऐ   खिदमत है विश्वनाथ  प्रसाद  साहेब  माथुर * लखनवी   का १३८३ हिजरी मैं लिखा यह मशहूर लेख़। 
…..स.म मासूम
हुसैन  और  भारत  विश्वनाथ  प्रसाद  साहेब  माथुर * लखनवी   मुहर्रम , १३८३  हिजरी
आँख  में  उनकी  जगह , दिल  में  मकां शब्बीर  का
यह  ज़मीं   शब्बीर  की ,  यह  आसमान  शब्बीर  का
जब  से  आने  को   कहा  था ,  कर्बला  से  हिंद  में
हो   गया   उस   रोज़   से ,   हिन्दोस्तान  शब्बीर  का
माथुर * लखनवी
पेश  लफ्ज़
अगर  चे  इस  मौजू  या  उन्वान  के  तहत  मुताद्दिद  मज़ामीन , दर्जनों  नज्में ,और  बेशुमार  रिसाले  शाया  हो  चुके  हैं , लेकिन  यह  मौजू  अपनी  अहमियत  के  लिहाज़  से  मेरे  नाचीज़  ख्याल  में  अभी  तश्न ए  फ़िक्र  ओ  नज़र  है . इस  लिए  इस  रिसाले  का  उन्वान  भी  मैं  ने  ” हुसैन  और  भारत  ” रखा  है  और  मुझे  यकीन  है  के  नाज़रीन  इसे  ज़रूर  पसंद  फरमाएं  गे।
नाचीज़ ,
माथुर * लखनवी
इराक  और  भारत  का  ज़ाहिरी  फासला  तो  हज़ारों  मील,का  है. अगर  चे  इस  फासले  को  मौजूदा  ज़माने  की  तेज़   रफ़्तार  सवारियों  ने  बहोत  कुछ  आसान  कर  दिया  है , लेकिन  सफ़र  की  यह सहूलतें  आज  से  १३२२  बरस  पहले  मौजूद  ना  थीं।
मुहर्रम  ६१  हिजरी  . में  हजरत  मोहम्मद  साहेब  के  छोटे  नवासे   हजरत  इमाम  हुसैन  ने  भारत  की  सरज़मीन  पर  आने  का  इरादा  फ़रमाया  था , और  उन्होंने  अपने  दुश्मन  यज़ीद  की  टिड्डी  दल   फ़ौज  के  सिपह सालार उमर  इब्ने  साद     से  अपनी चंद  शर्तों  के  नामंज़ूर   होने    के  बाद  यह  कहा  था  के  अगर  मेरी  किसी  और  शर्त  पर  राज़ी  नहीं  है  तो  मुझे  छोड़   दे  ताकि  मैं  भारत  चला  जाऊं।
मैं  अक्सर  यह  ग़ौर  करता  रहता   हूँ  के  तेरह  सौ  साल  पहले  जो   सफ़र  की  दुश्वारियां  हो  सकती  थीं , उनको  पेशे  नज़र  रखते हुए  हजरत  इमाम  हुसैन  का  भारत  की  सरज़मीन  की जानिब  आने  का  क़स्द (इरादा )  करना , और  यह  जानते हुए  के  ना  तो  उस  वक़्त  तक  फ़ातेहे  सिंध , मुहम्मद . बिन   क़ासिम  पैदा   हुआ   था , और  ना  हम  हिन्दुओं  के  मंदिरों  को  मिस्मार  करने  वाला  महमूद  ग़ज़नवी   ही  आलमे  वुजूद  में  आया  था . न  उस  वक़्त  भारत  में  कोई  मस्जिद  बनी  थी  और  ना  अज़ान  की  आवाज़  बुलंद   हुई  थी , बल्कि   एक  भी  मुसलमान  तिजारत  या  सन’अत    ओ  हिर्फ़त  की  बुनियाद  पर  भी  यहाँ  ना  आ  सका  था , ना  मौजूद  था . उस  वक़्त  तो  भारत  में   सिर्फ  चंद   ही  कौमें  आबाद  थीं , जो  बुनियादी  तौर  से  हिन्दू  मज़हब  से  ही  मुताल्लिक  हो  सकती  हैं . मगर  इन्  तमाम  हालात  का  अंदाजा  करने  के  बाद  भी  के  भारत  में  कोई  मुसलमान  मौजूद   नहीं  है , हजरत  इमाम  हुसैन  ने  उमर ए  साद  से  क्यों   यह  फरमाया  के  मुझे  भारत  चला  जाने  दे ।
अगरचे  हज़रत  इमाम  हुसैन  की  शहादत  से  पहले  किसी  ना  किसी  तरह   सरज़मीने  ईरान  तक  इस्लाम  पहुँच   चुका   था ,  और  सिर्फ  ईरान   ही  पर   मुनहसिर  नहीं  है , बल्कि   हबश  को  छोडकर   जहाँ  हजरत  अली  के  छोटे  भाई  जाफ़र ए  तय्यार  कुरान  और   इस्लाम   का  पैग़ाम  लेकर गए   थे। दीगर  मुल्क  भी  ईरान  की  तरह   जंग  ओ  जदल  के  बाद  उसवक्त  की  इस्लामी  सल्तनत   के  मातहत  आ  चुके   थे। जैसे  के  मिस्र  वा  शाम  वगैरह  , इसलिए  हजरत  इमाम  हुसैन  के  लिए  भारत  के  सफ़र  की  दुश्वारियां  सामने  रखते   हुए   यह  ज़्यादा  आसान  था  के वो  ईरान चले  जाते , या  मिस्र  ओ  शाम  जाने  का  इरादा   करते , मगर  उनहोंने  ऎसी  किसी  तमन्ना  का  इज़हार  नहीं  किया , सिर्फ  भारत  का  नाम  ही  उनकी  प्यासी  जुबां  पर  आया।
खुसूसियत  से  हबश  जाने  की  तमन्ना  करना   हजरत  इमाम   हुसैन  के  लिए   ज्यादा  आसान  था , क्यूंकि  ना  सिर्फ  बादशाहे  हबश  और  उसके  दरबारी  इस्लाम  कुबूल  कर  चुके   थे  बल्कि   हजरत  इमाम  हुसैन  के  हकीकी  चाचा  हजरत  जाफ़र  के  इखलाक   वा  मोहब्बत  से  बादशाहे  हबश  ज्यादा  मुतास्सिर  भी  हो  चुका   था .  यहाँ  तक  के  उसने  खुद्द  हजरत  जाफ़र  के  ज़रिये  से  भी  और  उनके  बाद  मुख्तलिफ  ज़राएय  से  रसूले  इस्लाम  और  हजरत  अली  की  खिदमत  में  बहुत  कुछ  तोहफे  भी  रवाना  किये  थे , बलके  वाकेआत  यह  बताते  हैं  के  ख़त  ओ  किताबत  भी  बादशाहे  हबश  से  होती  रहती  थी ।
दूसरा  सबब  हबश  जाने  की  तमन्ना  का  यह   भी  हो  सकता  था  के  उसवक्त  जितनी  दिक्क़तें  हबश  का  सफ़र  करने   के  सिलसिले  में  इमाम   हुसैन  को  पेश  आतीं , वो   इससे  बहोत  कम  होतीं  जो  हिन्दोस्तान  के  सफ़र  के  सिलसिले  में  ख्याल  की  जा  सकती  थीं . मगर  हबश  की  सहूलतों  को   नज़र  अंदाज़  करने  के   बाद  हजरत  इमाम  हुसैन  किसी  भी  गैर मुस्लिम   मुल्क  जाने  का  इरादा  नहीं  करते , बल्कि   उस  हिन्दोस्तान  की  जानिब  उनका  नूरानी  दिल  खींचता  हुआ  नज़र  आता  है , जहाँ  उसवक्त  एक   भी  मुसलमान  ना  था . आखिर  क्यों ?  येही  वो   सवाल  है  जो  बार  बार  मेरे  दिमाग    के  रौज़नों  में  अकीदत  की  रौशनी  को  तेज़   करता  है , और  अपनी  जगह  पर  मैं  इस  फैसले  पर  अटल  हो  जाता  हूँ  के  जिस  तरह  से  हिन्दोस्तान  वालों  को  हजरत  इमाम  हुसैन   से  मोहब्बत होने   वाली  थी  उसी  तरह  इमाम  हुसैन  के  दिल  में  हम  लोगों  की  मोहब्बत  मौजूद  थी।
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मोहब्बत  वो   फितरी  जज्बा  है  जो  दिल  में  किसी  की  सिफारिश  के  बग़ैर  ख़ुद ब ख़ुद  पैदा  होता  है , और  कम  अज  कम  मैं  उस  मज़हब  का  क़ायल  नहीं  हो  सकता , या  उस  मोहब्बत  पर  ईमान  नहीं  ला  सकता  जिसका  ताल्लुक   जबरी  हो . दुनिया  में  सैकड़ों   ही  मज़हब   हैं , और  हर  मज़हब  का  सुधारक   यह  दावा  करता  है  के  उसी  का  मज़हब  हक   है , और  यह  फैसला  क़यामत  से  पहले  दुनिया  की  निगाहों  के  सामने  आना   मुमकिन   नहीं  है , के  कौन  सा  मज़हब  हक  है . लेकिन  चाहे  चंद  मज़हब  हक  हों , या  एक   मज़हब  हक  हो , हम  को  इससे  ग़रज़  नहीं  है , हम  तो  सिर्फ  मोहब्बत  ही  को  हक  जानते  हैं ,और  शायद   इसी  लिए  दुनिया  के  बड़े  बड़े  पैग़ंबरों  और  ऋषियों  ने  मोहब्बत  ही  की  तालीम  दी  है ।
मोहब्बत  का  मेयार  भी  हर  दिल  में  यकसां  नहीं  होता , मोहब्बत  एक   हैवान  को  दुसरे  हैवान  से   भी  होती  है , और  इंसानों  में  भी  मोहब्बतों  के  अक्साम  का  कोई  शुमार  नहीं  है , माँ   को  बेटे  से  और  बेटे  को  माँ  से  मोहब्बत  होती   है , बहन  को  भाई  से  और  भाई  को  बहन  से  मोहब्बत  होती  है , चाचा  को  भतीजे  से  और  भतीजे  को  चाचा  से , बाप  को  बेटे  से  और  बेटे  को  बाप  से  मोहब्बत  होती  है . इन्  तमाम  मोहब्बतों  का  सिलसिला   नस्बी  रिश्तों  से  मुंसलिक  होता  है . लेकिन  ऎसी  भी  मोहब्बतें  दुनिया  में   मौजूद  हैं , जो  शौहर  को  ज़ौजा से  और  ज़ौजा  को  शौहर  से  होती  है , या  एक  दोस्त  को  दूसरे  दोस्त  से  होती  है , इन्  सब  मोहब्बतों  का  इन्हेसार  सबब  या  असबाब  पर  होता  है . मगर  वो मोहब्बतें  इन् तमाम  मोहब्बतों  से  बुलंद  होती  हैं , जो  इंसानियत  के  बुलंद  तबके  में  पाई  जाती  हैं , मसलन  पैग़म्बर  नूह  को  अपनी  कश्ती  से  मोहब्बत , या  हजरत  इब्राहीम  को  अपने  बेटे  इस्माइल  से  मोहब्बत , या  हजरत   मोहम्मद  (स)   को   अपनी  उम्मत  से  मोहब्बत , यह  तमाम  मोहब्बतें  उस  मेयार  से  बहोत  ऊंची  होती  हैं , जो  आम  सतेह   के  इंसानों  में  पाई  जाती  हैं . लिहाज़ा  यह  मानना  पढ़ेगा  के  हजरत  इमाम  हुसैन  के  दिल  में  हिन्दोस्तान  और  उसके  रहने  वालों  की  जो  मोहब्बत  थी , वो  उसी  बुलंद  मेयार  से  ता’अलुक  रखती  है  जो  पैग़म्बरे  इस्लाम  हजरत  मोहम्मद  साहेब  को  अपनी  उम्मत   से  हो  सकती  हो , क्योंके  अगर  यह  मोहब्बत  आला  मेयार  की  ना  होती  तो  उसका  वजूद  वक्ती  होता ,  या  उस  अहद  से  शुरू  होती , जब  से  इस्लाम  हिन्दोस्तान  में  आया . जब  हम  ग़ौर  करते  हैं   तो  यह  मालुम   होता  है  के  हजरत  इमाम  हुसैन  की  मोहब्बत  का लामुतनाही  सिलसिला  १३२२  बरस  पहले  से  रोज़े  आशूर  शरू  होता  है , और  यह  सिलसिला  उसवक्त  तक  बाक़ी  रहने  का   यकीन  है  जब  तक  दुनिया  और  खुद  हिन्दोस्तान  का   वजूद  है ।
ये  बात  भी  इंसान  की  फितरत  तस्लीम  कर  चुकी  है  के  रूहानी  पेशवा   जितने   भी  होते   हैं  उनमें  से  अक्सर   को  ना  सिर्फ  गुज़रे  हुए   वाकेअत  का  इल्म  होता  है , बल्कि  आइंदा  पेश  आने  वाले  हालात  भी  उनकी  निगाहों  के  सामने  रहते  हैं ।
हजरत  इमाम  हुसैन  का  भी  ऐसी  ही  बुलंद  हस्तियों  में  शुमार  है , जिनको  आइंदा  ज़माने  के  वाकेआत  वा  हालात  का  मुकम्मल  तौर  से  इल्म  था , और  इसी  बिना  पर  वो  जानते  थे  के  उनके  चाहने  वाले  हिन्दोस्तान  में  ज़रूर  पैदा   होंगे . जैसा  के  उनका  ख्याल  था  , वो   होकर  रहा , और  यहाँ  इस्लाम  के  आने  से  पहले  हिमालय  की  सर्बुलंद  चोटियों  पर  “ हुसैन  पोथी  “ पढ़ी  जाने  लगी . ज़ाहिर  है  के  जब  मुस्लमान  सरज़मीं  इ  भारत  पर  आए   नहीं  थे। '
उस  वक़्त  हुसैन  की  पोथी  पढ़ने  वाले  सिवाए   हिन्दुओं  के  और  कौन  हो  सकता  है ? हो  सकता  है  के  उसी  वक़्त  से  सर ज़मीन ए हिंदोस्तान  पर  हुस्सैनी  ब्रह्मण  नज़र  आने  लगे  हों , जिनका  सिलसिला  अब  तक  जारी  है , बल्की  यह  तमाम  ब्रह्मण  मज्हबन  हिन्दू  मज़हब  के  मानने  वाले  होते  हैं  सदियों   से , लेकिन  मोहब्बत  के  उसूल  पर  वो   हुसैन  की  तालीम  को  बहोत  अहमियत  देते  हैं .  यूं  तो  हुस्सैनी  ब्रह्मण  पूरे  मुल्क  में  दिखाई  देते  हैं , मगर  खुसूसियत  से  जम्मू  और  कश्मीर  के  इलाके  में  इनलोगों  की  कसीर  आबादी  है , जो  हमावक़्त  हुस्सैनी  तालीम  पर  अमल  पैर   होना  सबब ए फ़ख़्र जानते  हैं ।
लिहाज़ा  यह  तस्लीम  कर्म  पढ़ेगा  के  हजरत  इमाम   हुसैन  को  हिन्दोस्तान  और  उसके  रहने  वालों  से  जो  मोहब्बत  थी , वो   न  सिर्फ  हकीकत  पर  मबनी  कही  जा  सकती  है , बलके  उनकी  मोहब्बत  के  असरात  उनकी  शहादत  के  कुछ  ही  अरसे  बाद  से  दिलों  में  नुशुओनुम  पाने  लगे . हम   नहीं  कह  सकते  के  इमाम  हुसैन  की  मोहब्बत  को  और  उनके  ग़म  को  हिन्दोस्तान  में  लेने   वाला  कौन  था , जबके  (यहाँ ) मुसलामानों  का  उसवक्त  वजूद  ही  नहीं    था , लिहाज़ा  यह  भी  मानना पढ़ेगा  के  इमाम  हुसैन  के  ग़म  को  या  उनकी  मोहब्बत  को  सरज़मीने  हिन्दोस्तान  पर  पहुँचाने  वाली  वोही  गैबी   ताक़त   थी , जिसने  उनके  ग़म  में  आसमानों  को  खून  के  आंसुओं  से  अश्कबार  किया , और  फ़ज़ाओं  से  या  हुसैन  की  सदाओं  को  बुलंद  कराया ।
और  अब  तो  हुसैन  की  अज़मत , उनकी  शख्सीयत  और  उनकी  बेपनाह  मोहब्बत  का  क्या  कहना . हर  शख्स  अपने  दिमाग   से  समझ  रहा  है , अपने  दिल  से  जान  रहा  है , और  अपनी  आँखों  से  देख  रहा  है , के  सिर्फ  मुसलमान  ही  मुहर्रम  में   उनका  ग़म   नहीं  मानते  , बल्कि   हिन्दू  भी ग़म ए हुसैन में  अजादार  होकर  इसका  सुबूत  देते  हैं  के  अगर  इमाम  हुसैन   ने  आशूर  के  दिन  हिन्दोस्तान  आने   का   इरादा  ज़ाहिर  किया  था , तो  हम  हिन्दुओं  के  दिल  में  भी  उनकी  मोहब्बत  के  जवाबी  असरात  नुमायाँ  होकर  रहते  हैं ।
मुहर्रम  का  चाँद  देखते  ही , ना  सिर्फ  ग़रीबों  के  दिल  और  आँखें  ग़म  ऐ  हुसैन  से  छलक  उठती  हैं , बल्कि हिन्दुओं  की  बड़ी   बड़ी   शख्सियतें  भी  बारगाहे  हुस्सैनी  में  ख़ेराज ए अक़ीदत पेश  किये  बग़ैर  नहीं  रहतीं । अब  तो  खैर  हिन्दोस्तान  में  खुद  मुख्तार  रियासतों  का  वजूद  ही  नहीं  रहा , लेकिन  बीस  बरस  क़ब्ल   तक , ग्वालियर  की  अज़ादारी  और  महाराज  ग्वालियर  की  इमाम  हुसैन  से  अकीदत  इम्तेयाज़ी  हैसियत  रखती  थी ।
अगर  चे  मुहर्रम   अब  भी  ग्वालियर   में  शान  ओ  शौकत  के  साथ  मनाया  जाता  है , और  सिर्फ  ग्वालियर  ही  पर  मुन्हसिर  नहीं  है  इंदौर  का  मुहर्रम  और  वहां   का  ऊंचा  और  वजनी  ताज़िया  दुनिया  के  गोशे  गोशे  में  शोहरत  रखता  है . हैदराबाद  और  जुनूबी  हिन्दोस्तान  में  आशूर  की  रात  को  हुसैन  के  अकीदतमंद  आग  पर  चल  कर  मोहब्बत  का  इज़हार  करते  है , वहां  अब  भी  एक  महाराज  हैं  जो  सब्ज़  लिबास  पहन  कर , और  अलम  हाथ  में   लेकर  जब  तक  दहेकते  ही  अंगारों  पर  दूल्हा  दूल्हा  कहते  ही  क़दम  नहीं  बढ़ाते , तब  तक  कोई  मुस्लमान  अज़ादार  आग  पर पैर   नहीं  रख  सकता। यह  क्या  बात  है  हम  नहीं  जानते , और  हुसैन  के  मुताल्लिक़  बहुत  सी  बातें  ऐसी  हैं  जिसको  चाहे  अक्ल  ना  भी  तस्लीम  करती  हो , मगर  निगाहें   बराबर  दिखती  रहती  हैं । यानी  अगर  हजरत  इमाम  हुसैन  के  ग़म  या  उनकी  अज़ादारी  में  गैबी   ताक़त  ना  शामिल  होती  तो  वो  करामातें  दुनिया  ना  देख  सकती  जो  हर  साल  मुहर्रम  में  दिखती  रहती  है . अगर   आज  सिगरेट    सुलगाने  में  दियासलाई  का  चटका   ऊँगली  में  लग  जाता  है  तो  छाला  पढ़े  बग़ैर  नहीं  रहता , इस  लिए  के  आग  का   काम  जला  देना  ही  होता  है , मगर  दहकते हुए   अंगारों  पर  हुसैन  का  नाम  लेने  के  बाद  रास्ता  चलना   और  पांव  का  ना  जलना , या  छाले ना  पढ़ना , हुसैन  की  करामत  नहीं  तो  और  क्या  है ?
इससे  इनकार  नहीं  किया  जा  सकता  के  हमारे  भारत  में  इराक  से  कम  अज़ादारी  नहीं  होती , यह  सब  कुछ  क्या  है ? उसी  हुसैन  की  मोहब्बत   का  करिश्मा  और  असरात  हैं , जिसने  अपनी  शहादत  के  दिन  हिन्दोस्तान  आने  का  इरादा  ज़ाहिर  किया  था ।
दुनिया  के  हर  मज़हब  में मुक़्तदिर शख्सियतें  गुजरी  हैं , और  किसी  मज़हब  का  दामन  ऐसी  बुलंद  ओ   बाला  हस्तियों  से  ख़ाली  नहीं  है  जिनकी  अजमत  बहार  तौर  मानना  ही  पढ़ती  है। जैसे  के  ईसाईयों  के  हजरत  ईसा , या   यहूदियों  के  हजरत  मूसा . मगर  जितनी  मजाहेब  की  जितनी  भी  काबिले  अजमत  हस्तियाँ  होती  हैं , उनको  सिर्फ   उसी  मज़हब  वाले  अपना  पेशवा  मानते  हैं ,  जिस   मज़हब   में  वो   होती  हैं । अगर  चे  एहतराम  हर  मज़हब  के  ऋषियों , पेशवाओं ,  पैग़ंबरों  का  हर  शख्स  करता  है । लेकिन  इस  हकीकत  से  चाहे  हजरत  इमाम   हुसैन  के  दुश्मन  चश्म  पोशी  कर  लें , मगर  हम  लोग यह  कहे  बग़ैर  नहीं  रह  सकते  के  हजरत  इमाम   हुसैन  की  बैनुल अक़वामी  हैसियत  और  उनकी  ज़ात  से , बग़ैर  इम्तियाज़े  मज्हबो  मिल्लत  हर  शख्स  को  इतनी  इतनी  गहरी  मोहब्बत  है , जितनी  के  किसी  को  किसी   से  नहीं   है . ऐसा  क्यूँ  है , हम  नहीं  कह  सकते , क्यूँ के  बहुत  सी  बातें  ऐसी  भी  होती  हैं  जो  ज़बान  तक  नहीं  आ  सकती  हैं , मगर  दिल  उनको  ज़रूर  महसूस  कर  लेता  है ।
आप  दुनिया  की  किसी  भी  पढ़ी  लिखी  शख्सियत  से  अगर  इमाम  हुसैन  के  मुताल्लिक़  दरयाफ्त  करेंगे  तो  वो इस  बात  का  इकरार  किये  बग़ैर  नहीं  रह  सकेगा  के  यकीनन  हुसैन  अपने नज़रियात  में  तनहा  हैं , और  उनकी  अजमत  को  तस्लीम  करने  वाली  दुनिया  की  हर  कौम , और  दुनिया  का  हर  मज़हब , और  उसके  तालीम  याफ्ता  अफराद  हैं ।
एक  बात  मेरी  समझ  में  और  भी  आती  है , और  वो  यह  के  हिन्दोस्तान   चूंके   मुख्तलिफ  मज़हब  के  मानने  वालों  का   मरकज़  है , और  इमाम  हुसैन  की  शख्सियत  में  ऐसा जज्बा पाया  जाता  है , के  हर  कौम   उनको  खिराजे  अकीदत  पेश  करना  अपना  फ़र्ज़  जानती  है।  और  यह  मैं  पहले  ही  अर्ज़  कर  चुक्का  हूँ  के  हजरत  इमाम  हुसैन  चूंकि  आने  वाले  वाकेआत  का  इल्म  रखते  थे , इसलिए  वो  ज़रूर  जानते  होंगे  के  एक  ज़माना  वो  आने  वाला  है  के  जब  भारत  की  सरज़मीन  पर  दुनिया  के  तमाम  मज़हब  के  मानने  वाले  आबाद  होंगे . इसलिए  हुसैन  चाहते  थे  के  दुनिया  की  हर  कौम  के  अफराद  यह  समझ  लें  के  उनकी  मुसीबतें  और  परेशानियाँ  ऐसी  थीं  जिनसे  हर  इंसान  को  फितरी  लगाव  पैदा  हो  सकता  है , ख्वाह  उसका  ता’अल्लुक़  किसी  मज़हब  से  क्यूँ  ना  हो । 
इसी  तरह  यज़ीद  के  ज़ुल्म  ओ  जौर  और  उसके  बदनाम  किरदार   को  भी   उसके  बेपनाह  मज़ालिम  की  मौजूदगी  में  समझा  जा   सकता   है . चुनांचे  हकीकत  तो  वोही  होती  है  जिसको  दुनिया  का  हर  वो  शख्स  तस्लीम  करे  जिसका  ताअल्लुक़  ख्वाह  किसी  मज़हब  से  हो।   लिहाज़ा  हिन्दोस्तान  में  चूंके   हर  कौम  ओ  मज़हब  में    इन्साफ  पसंद  हजरात  की  कमी  नहीं  है , इसलिए  हो  सकता  है  के  हजरत  इमाम  हुसैन  ने  इसी  मकसद  को  पेश  ऐ  नज़र  रखते हुए  यह  इरशाद  फ़रमाया  हो  के  वो  हिन्दोस्तान  जाने  का   इरादा  रखते  हैं।  अगर  चे  उनकी  तमन्ना  पूरी  ना  हो  सकी , लेकिन  मशीयत  का  यह  मकसद  ज़रूर  पूरा  हो  गया  के  हिन्दोस्तान  की  सरज़मीन  पर  रहने  वाले  बगैरे   इम्तियाज़े  मज़हब , इमाम हुसैन  को  मोहब्बत  ओ  अकीदत  के  मोती  निछावर  करते  रहते  हैं  और  करते  रहेंगे ।

इमाम हुसैन (अ:स) के खुतबे - मदीना से कर्बला तक

अल्लामा मुहम्मद सादिक नजमी द्वारा संकलित
  आवाज़ : स्येद नासिर काज़मी
  अह्लुल्बैलामिक सेंटर, लाहौर द्वारा प्रकाशित


Courtesy : http://www.islaminhindi.org/Muharram-KHUTBAATE-IMAM-HUSSAIN-AS.htm