हुसैन और भारत विश्वनाथ प्रसाद माथुर * लखनवी मुहर्रम , १३८३ हिजरी


हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के पिता हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम व आपकी माता हज़रत फ़तिमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा हैं। आप अपने माता पिता की द्वितीय सन्तान थे। आप हजरत  मोहम्मद  साहेब  के  छोटे  नवासे   भी हैं
हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का जन्म सन् चार  हिजरी क़मरी में शाबान मास की तीसरी  तिथि को पवित्र शहर मदीनेमें हुआ था। इस समय सीमा में  इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को सदाचार सिखाने ज्ञान प्रदान करने तथा भोजन कराने  का उत्तरदायित्व स्वंम पैगम्बर(स.) के ऊपर था।  पैगम्बर(स.)  इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से अत्यधिक प्रेम करते थे। वह उनका छोटा सा दुखः भी सहन नहीं कर पाते थे।  इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से प्रेम के सम्बन्ध में पैगम्बर(स.) के इस प्रसिद्ध कथन का सभी मुसलमान  विद्वानो ने उल्लेख किया है। कि पैगम्बर(स.) ने कहा कि हुसैन मुझसे हैऔर मैं हुसैन से हूँ। अल्लाह तू उससे प्रेम कर जो हुसैन से प्रेम करे ।
आज इमाम हुसैन (अ.स) के जन्म दिन के अवसर पे आप सब को  मुबारकबाद पेश करते हुए , पेश ऐ   खिदमत है विश्वनाथ  प्रसाद  साहेब  माथुर * लखनवी   का १३८३ हिजरी मैं लिखा यह मशहूर लेख़। 
…..स.म मासूम
हुसैन  और  भारत  विश्वनाथ  प्रसाद  साहेब  माथुर * लखनवी   मुहर्रम , १३८३  हिजरी
आँख  में  उनकी  जगह , दिल  में  मकां शब्बीर  का
यह  ज़मीं   शब्बीर  की ,  यह  आसमान  शब्बीर  का
जब  से  आने  को   कहा  था ,  कर्बला  से  हिंद  में
हो   गया   उस   रोज़   से ,   हिन्दोस्तान  शब्बीर  का
माथुर * लखनवी
पेश  लफ्ज़
अगर  चे  इस  मौजू  या  उन्वान  के  तहत  मुताद्दिद  मज़ामीन , दर्जनों  नज्में ,और  बेशुमार  रिसाले  शाया  हो  चुके  हैं , लेकिन  यह  मौजू  अपनी  अहमियत  के  लिहाज़  से  मेरे  नाचीज़  ख्याल  में  अभी  तश्न ए  फ़िक्र  ओ  नज़र  है . इस  लिए  इस  रिसाले  का  उन्वान  भी  मैं  ने  ” हुसैन  और  भारत  ” रखा  है  और  मुझे  यकीन  है  के  नाज़रीन  इसे  ज़रूर  पसंद  फरमाएं  गे।
नाचीज़ ,
माथुर * लखनवी
इराक  और  भारत  का  ज़ाहिरी  फासला  तो  हज़ारों  मील,का  है. अगर  चे  इस  फासले  को  मौजूदा  ज़माने  की  तेज़   रफ़्तार  सवारियों  ने  बहोत  कुछ  आसान  कर  दिया  है , लेकिन  सफ़र  की  यह सहूलतें  आज  से  १३२२  बरस  पहले  मौजूद  ना  थीं।
मुहर्रम  ६१  हिजरी  . में  हजरत  मोहम्मद  साहेब  के  छोटे  नवासे   हजरत  इमाम  हुसैन  ने  भारत  की  सरज़मीन  पर  आने  का  इरादा  फ़रमाया  था , और  उन्होंने  अपने  दुश्मन  यज़ीद  की  टिड्डी  दल   फ़ौज  के  सिपह सालार उमर  इब्ने  साद     से  अपनी चंद  शर्तों  के  नामंज़ूर   होने    के  बाद  यह  कहा  था  के  अगर  मेरी  किसी  और  शर्त  पर  राज़ी  नहीं  है  तो  मुझे  छोड़   दे  ताकि  मैं  भारत  चला  जाऊं।
मैं  अक्सर  यह  ग़ौर  करता  रहता   हूँ  के  तेरह  सौ  साल  पहले  जो   सफ़र  की  दुश्वारियां  हो  सकती  थीं , उनको  पेशे  नज़र  रखते हुए  हजरत  इमाम  हुसैन  का  भारत  की  सरज़मीन  की जानिब  आने  का  क़स्द (इरादा )  करना , और  यह  जानते हुए  के  ना  तो  उस  वक़्त  तक  फ़ातेहे  सिंध , मुहम्मद . बिन   क़ासिम  पैदा   हुआ   था , और  ना  हम  हिन्दुओं  के  मंदिरों  को  मिस्मार  करने  वाला  महमूद  ग़ज़नवी   ही  आलमे  वुजूद  में  आया  था . न  उस  वक़्त  भारत  में  कोई  मस्जिद  बनी  थी  और  ना  अज़ान  की  आवाज़  बुलंद   हुई  थी , बल्कि   एक  भी  मुसलमान  तिजारत  या  सन’अत    ओ  हिर्फ़त  की  बुनियाद  पर  भी  यहाँ  ना  आ  सका  था , ना  मौजूद  था . उस  वक़्त  तो  भारत  में   सिर्फ  चंद   ही  कौमें  आबाद  थीं , जो  बुनियादी  तौर  से  हिन्दू  मज़हब  से  ही  मुताल्लिक  हो  सकती  हैं . मगर  इन्  तमाम  हालात  का  अंदाजा  करने  के  बाद  भी  के  भारत  में  कोई  मुसलमान  मौजूद   नहीं  है , हजरत  इमाम  हुसैन  ने  उमर ए  साद  से  क्यों   यह  फरमाया  के  मुझे  भारत  चला  जाने  दे ।
अगरचे  हज़रत  इमाम  हुसैन  की  शहादत  से  पहले  किसी  ना  किसी  तरह   सरज़मीने  ईरान  तक  इस्लाम  पहुँच   चुका   था ,  और  सिर्फ  ईरान   ही  पर   मुनहसिर  नहीं  है , बल्कि   हबश  को  छोडकर   जहाँ  हजरत  अली  के  छोटे  भाई  जाफ़र ए  तय्यार  कुरान  और   इस्लाम   का  पैग़ाम  लेकर गए   थे। दीगर  मुल्क  भी  ईरान  की  तरह   जंग  ओ  जदल  के  बाद  उसवक्त  की  इस्लामी  सल्तनत   के  मातहत  आ  चुके   थे। जैसे  के  मिस्र  वा  शाम  वगैरह  , इसलिए  हजरत  इमाम  हुसैन  के  लिए  भारत  के  सफ़र  की  दुश्वारियां  सामने  रखते   हुए   यह  ज़्यादा  आसान  था  के वो  ईरान चले  जाते , या  मिस्र  ओ  शाम  जाने  का  इरादा   करते , मगर  उनहोंने  ऎसी  किसी  तमन्ना  का  इज़हार  नहीं  किया , सिर्फ  भारत  का  नाम  ही  उनकी  प्यासी  जुबां  पर  आया।
खुसूसियत  से  हबश  जाने  की  तमन्ना  करना   हजरत  इमाम   हुसैन  के  लिए   ज्यादा  आसान  था , क्यूंकि  ना  सिर्फ  बादशाहे  हबश  और  उसके  दरबारी  इस्लाम  कुबूल  कर  चुके   थे  बल्कि   हजरत  इमाम  हुसैन  के  हकीकी  चाचा  हजरत  जाफ़र  के  इखलाक   वा  मोहब्बत  से  बादशाहे  हबश  ज्यादा  मुतास्सिर  भी  हो  चुका   था .  यहाँ  तक  के  उसने  खुद्द  हजरत  जाफ़र  के  ज़रिये  से  भी  और  उनके  बाद  मुख्तलिफ  ज़राएय  से  रसूले  इस्लाम  और  हजरत  अली  की  खिदमत  में  बहुत  कुछ  तोहफे  भी  रवाना  किये  थे , बलके  वाकेआत  यह  बताते  हैं  के  ख़त  ओ  किताबत  भी  बादशाहे  हबश  से  होती  रहती  थी ।
दूसरा  सबब  हबश  जाने  की  तमन्ना  का  यह   भी  हो  सकता  था  के  उसवक्त  जितनी  दिक्क़तें  हबश  का  सफ़र  करने   के  सिलसिले  में  इमाम   हुसैन  को  पेश  आतीं , वो   इससे  बहोत  कम  होतीं  जो  हिन्दोस्तान  के  सफ़र  के  सिलसिले  में  ख्याल  की  जा  सकती  थीं . मगर  हबश  की  सहूलतों  को   नज़र  अंदाज़  करने  के   बाद  हजरत  इमाम  हुसैन  किसी  भी  गैर मुस्लिम   मुल्क  जाने  का  इरादा  नहीं  करते , बल्कि   उस  हिन्दोस्तान  की  जानिब  उनका  नूरानी  दिल  खींचता  हुआ  नज़र  आता  है , जहाँ  उसवक्त  एक   भी  मुसलमान  ना  था . आखिर  क्यों ?  येही  वो   सवाल  है  जो  बार  बार  मेरे  दिमाग    के  रौज़नों  में  अकीदत  की  रौशनी  को  तेज़   करता  है , और  अपनी  जगह  पर  मैं  इस  फैसले  पर  अटल  हो  जाता  हूँ  के  जिस  तरह  से  हिन्दोस्तान  वालों  को  हजरत  इमाम  हुसैन   से  मोहब्बत होने   वाली  थी  उसी  तरह  इमाम  हुसैन  के  दिल  में  हम  लोगों  की  मोहब्बत  मौजूद  थी।
karbala
मोहब्बत  वो   फितरी  जज्बा  है  जो  दिल  में  किसी  की  सिफारिश  के  बग़ैर  ख़ुद ब ख़ुद  पैदा  होता  है , और  कम  अज  कम  मैं  उस  मज़हब  का  क़ायल  नहीं  हो  सकता , या  उस  मोहब्बत  पर  ईमान  नहीं  ला  सकता  जिसका  ताल्लुक   जबरी  हो . दुनिया  में  सैकड़ों   ही  मज़हब   हैं , और  हर  मज़हब  का  सुधारक   यह  दावा  करता  है  के  उसी  का  मज़हब  हक   है , और  यह  फैसला  क़यामत  से  पहले  दुनिया  की  निगाहों  के  सामने  आना   मुमकिन   नहीं  है , के  कौन  सा  मज़हब  हक  है . लेकिन  चाहे  चंद  मज़हब  हक  हों , या  एक   मज़हब  हक  हो , हम  को  इससे  ग़रज़  नहीं  है , हम  तो  सिर्फ  मोहब्बत  ही  को  हक  जानते  हैं ,और  शायद   इसी  लिए  दुनिया  के  बड़े  बड़े  पैग़ंबरों  और  ऋषियों  ने  मोहब्बत  ही  की  तालीम  दी  है ।
मोहब्बत  का  मेयार  भी  हर  दिल  में  यकसां  नहीं  होता , मोहब्बत  एक   हैवान  को  दुसरे  हैवान  से   भी  होती  है , और  इंसानों  में  भी  मोहब्बतों  के  अक्साम  का  कोई  शुमार  नहीं  है , माँ   को  बेटे  से  और  बेटे  को  माँ  से  मोहब्बत  होती   है , बहन  को  भाई  से  और  भाई  को  बहन  से  मोहब्बत  होती  है , चाचा  को  भतीजे  से  और  भतीजे  को  चाचा  से , बाप  को  बेटे  से  और  बेटे  को  बाप  से  मोहब्बत  होती  है . इन्  तमाम  मोहब्बतों  का  सिलसिला   नस्बी  रिश्तों  से  मुंसलिक  होता  है . लेकिन  ऎसी  भी  मोहब्बतें  दुनिया  में   मौजूद  हैं , जो  शौहर  को  ज़ौजा से  और  ज़ौजा  को  शौहर  से  होती  है , या  एक  दोस्त  को  दूसरे  दोस्त  से  होती  है , इन्  सब  मोहब्बतों  का  इन्हेसार  सबब  या  असबाब  पर  होता  है . मगर  वो मोहब्बतें  इन् तमाम  मोहब्बतों  से  बुलंद  होती  हैं , जो  इंसानियत  के  बुलंद  तबके  में  पाई  जाती  हैं , मसलन  पैग़म्बर  नूह  को  अपनी  कश्ती  से  मोहब्बत , या  हजरत  इब्राहीम  को  अपने  बेटे  इस्माइल  से  मोहब्बत , या  हजरत   मोहम्मद  (स)   को   अपनी  उम्मत  से  मोहब्बत , यह  तमाम  मोहब्बतें  उस  मेयार  से  बहोत  ऊंची  होती  हैं , जो  आम  सतेह   के  इंसानों  में  पाई  जाती  हैं . लिहाज़ा  यह  मानना  पढ़ेगा  के  हजरत  इमाम  हुसैन  के  दिल  में  हिन्दोस्तान  और  उसके  रहने  वालों  की  जो  मोहब्बत  थी , वो  उसी  बुलंद  मेयार  से  ता’अलुक  रखती  है  जो  पैग़म्बरे  इस्लाम  हजरत  मोहम्मद  साहेब  को  अपनी  उम्मत   से  हो  सकती  हो , क्योंके  अगर  यह  मोहब्बत  आला  मेयार  की  ना  होती  तो  उसका  वजूद  वक्ती  होता ,  या  उस  अहद  से  शुरू  होती , जब  से  इस्लाम  हिन्दोस्तान  में  आया . जब  हम  ग़ौर  करते  हैं   तो  यह  मालुम   होता  है  के  हजरत  इमाम  हुसैन  की  मोहब्बत  का लामुतनाही  सिलसिला  १३२२  बरस  पहले  से  रोज़े  आशूर  शरू  होता  है , और  यह  सिलसिला  उसवक्त  तक  बाक़ी  रहने  का   यकीन  है  जब  तक  दुनिया  और  खुद  हिन्दोस्तान  का   वजूद  है ।
ये  बात  भी  इंसान  की  फितरत  तस्लीम  कर  चुकी  है  के  रूहानी  पेशवा   जितने   भी  होते   हैं  उनमें  से  अक्सर   को  ना  सिर्फ  गुज़रे  हुए   वाकेअत  का  इल्म  होता  है , बल्कि  आइंदा  पेश  आने  वाले  हालात  भी  उनकी  निगाहों  के  सामने  रहते  हैं ।
हजरत  इमाम  हुसैन  का  भी  ऐसी  ही  बुलंद  हस्तियों  में  शुमार  है , जिनको  आइंदा  ज़माने  के  वाकेआत  वा  हालात  का  मुकम्मल  तौर  से  इल्म  था , और  इसी  बिना  पर  वो  जानते  थे  के  उनके  चाहने  वाले  हिन्दोस्तान  में  ज़रूर  पैदा   होंगे . जैसा  के  उनका  ख्याल  था  , वो   होकर  रहा , और  यहाँ  इस्लाम  के  आने  से  पहले  हिमालय  की  सर्बुलंद  चोटियों  पर  “ हुसैन  पोथी  “ पढ़ी  जाने  लगी . ज़ाहिर  है  के  जब  मुस्लमान  सरज़मीं  इ  भारत  पर  आए   नहीं  थे। '
उस  वक़्त  हुसैन  की  पोथी  पढ़ने  वाले  सिवाए   हिन्दुओं  के  और  कौन  हो  सकता  है ? हो  सकता  है  के  उसी  वक़्त  से  सर ज़मीन ए हिंदोस्तान  पर  हुस्सैनी  ब्रह्मण  नज़र  आने  लगे  हों , जिनका  सिलसिला  अब  तक  जारी  है , बल्की  यह  तमाम  ब्रह्मण  मज्हबन  हिन्दू  मज़हब  के  मानने  वाले  होते  हैं  सदियों   से , लेकिन  मोहब्बत  के  उसूल  पर  वो   हुसैन  की  तालीम  को  बहोत  अहमियत  देते  हैं .  यूं  तो  हुस्सैनी  ब्रह्मण  पूरे  मुल्क  में  दिखाई  देते  हैं , मगर  खुसूसियत  से  जम्मू  और  कश्मीर  के  इलाके  में  इनलोगों  की  कसीर  आबादी  है , जो  हमावक़्त  हुस्सैनी  तालीम  पर  अमल  पैर   होना  सबब ए फ़ख़्र जानते  हैं ।
लिहाज़ा  यह  तस्लीम  कर्म  पढ़ेगा  के  हजरत  इमाम   हुसैन  को  हिन्दोस्तान  और  उसके  रहने  वालों  से  जो  मोहब्बत  थी , वो   न  सिर्फ  हकीकत  पर  मबनी  कही  जा  सकती  है , बलके  उनकी  मोहब्बत  के  असरात  उनकी  शहादत  के  कुछ  ही  अरसे  बाद  से  दिलों  में  नुशुओनुम  पाने  लगे . हम   नहीं  कह  सकते  के  इमाम  हुसैन  की  मोहब्बत  को  और  उनके  ग़म  को  हिन्दोस्तान  में  लेने   वाला  कौन  था , जबके  (यहाँ ) मुसलामानों  का  उसवक्त  वजूद  ही  नहीं    था , लिहाज़ा  यह  भी  मानना पढ़ेगा  के  इमाम  हुसैन  के  ग़म  को  या  उनकी  मोहब्बत  को  सरज़मीने  हिन्दोस्तान  पर  पहुँचाने  वाली  वोही  गैबी   ताक़त   थी , जिसने  उनके  ग़म  में  आसमानों  को  खून  के  आंसुओं  से  अश्कबार  किया , और  फ़ज़ाओं  से  या  हुसैन  की  सदाओं  को  बुलंद  कराया ।
और  अब  तो  हुसैन  की  अज़मत , उनकी  शख्सीयत  और  उनकी  बेपनाह  मोहब्बत  का  क्या  कहना . हर  शख्स  अपने  दिमाग   से  समझ  रहा  है , अपने  दिल  से  जान  रहा  है , और  अपनी  आँखों  से  देख  रहा  है , के  सिर्फ  मुसलमान  ही  मुहर्रम  में   उनका  ग़म   नहीं  मानते  , बल्कि   हिन्दू  भी ग़म ए हुसैन में  अजादार  होकर  इसका  सुबूत  देते  हैं  के  अगर  इमाम  हुसैन   ने  आशूर  के  दिन  हिन्दोस्तान  आने   का   इरादा  ज़ाहिर  किया  था , तो  हम  हिन्दुओं  के  दिल  में  भी  उनकी  मोहब्बत  के  जवाबी  असरात  नुमायाँ  होकर  रहते  हैं ।
मुहर्रम  का  चाँद  देखते  ही , ना  सिर्फ  ग़रीबों  के  दिल  और  आँखें  ग़म  ऐ  हुसैन  से  छलक  उठती  हैं , बल्कि हिन्दुओं  की  बड़ी   बड़ी   शख्सियतें  भी  बारगाहे  हुस्सैनी  में  ख़ेराज ए अक़ीदत पेश  किये  बग़ैर  नहीं  रहतीं । अब  तो  खैर  हिन्दोस्तान  में  खुद  मुख्तार  रियासतों  का  वजूद  ही  नहीं  रहा , लेकिन  बीस  बरस  क़ब्ल   तक , ग्वालियर  की  अज़ादारी  और  महाराज  ग्वालियर  की  इमाम  हुसैन  से  अकीदत  इम्तेयाज़ी  हैसियत  रखती  थी ।
अगर  चे  मुहर्रम   अब  भी  ग्वालियर   में  शान  ओ  शौकत  के  साथ  मनाया  जाता  है , और  सिर्फ  ग्वालियर  ही  पर  मुन्हसिर  नहीं  है  इंदौर  का  मुहर्रम  और  वहां   का  ऊंचा  और  वजनी  ताज़िया  दुनिया  के  गोशे  गोशे  में  शोहरत  रखता  है . हैदराबाद  और  जुनूबी  हिन्दोस्तान  में  आशूर  की  रात  को  हुसैन  के  अकीदतमंद  आग  पर  चल  कर  मोहब्बत  का  इज़हार  करते  है , वहां  अब  भी  एक  महाराज  हैं  जो  सब्ज़  लिबास  पहन  कर , और  अलम  हाथ  में   लेकर  जब  तक  दहेकते  ही  अंगारों  पर  दूल्हा  दूल्हा  कहते  ही  क़दम  नहीं  बढ़ाते , तब  तक  कोई  मुस्लमान  अज़ादार  आग  पर पैर   नहीं  रख  सकता। यह  क्या  बात  है  हम  नहीं  जानते , और  हुसैन  के  मुताल्लिक़  बहुत  सी  बातें  ऐसी  हैं  जिसको  चाहे  अक्ल  ना  भी  तस्लीम  करती  हो , मगर  निगाहें   बराबर  दिखती  रहती  हैं । यानी  अगर  हजरत  इमाम  हुसैन  के  ग़म  या  उनकी  अज़ादारी  में  गैबी   ताक़त  ना  शामिल  होती  तो  वो  करामातें  दुनिया  ना  देख  सकती  जो  हर  साल  मुहर्रम  में  दिखती  रहती  है . अगर   आज  सिगरेट    सुलगाने  में  दियासलाई  का  चटका   ऊँगली  में  लग  जाता  है  तो  छाला  पढ़े  बग़ैर  नहीं  रहता , इस  लिए  के  आग  का   काम  जला  देना  ही  होता  है , मगर  दहकते हुए   अंगारों  पर  हुसैन  का  नाम  लेने  के  बाद  रास्ता  चलना   और  पांव  का  ना  जलना , या  छाले ना  पढ़ना , हुसैन  की  करामत  नहीं  तो  और  क्या  है ?
इससे  इनकार  नहीं  किया  जा  सकता  के  हमारे  भारत  में  इराक  से  कम  अज़ादारी  नहीं  होती , यह  सब  कुछ  क्या  है ? उसी  हुसैन  की  मोहब्बत   का  करिश्मा  और  असरात  हैं , जिसने  अपनी  शहादत  के  दिन  हिन्दोस्तान  आने  का  इरादा  ज़ाहिर  किया  था ।
दुनिया  के  हर  मज़हब  में मुक़्तदिर शख्सियतें  गुजरी  हैं , और  किसी  मज़हब  का  दामन  ऐसी  बुलंद  ओ   बाला  हस्तियों  से  ख़ाली  नहीं  है  जिनकी  अजमत  बहार  तौर  मानना  ही  पढ़ती  है। जैसे  के  ईसाईयों  के  हजरत  ईसा , या   यहूदियों  के  हजरत  मूसा . मगर  जितनी  मजाहेब  की  जितनी  भी  काबिले  अजमत  हस्तियाँ  होती  हैं , उनको  सिर्फ   उसी  मज़हब  वाले  अपना  पेशवा  मानते  हैं ,  जिस   मज़हब   में  वो   होती  हैं । अगर  चे  एहतराम  हर  मज़हब  के  ऋषियों , पेशवाओं ,  पैग़ंबरों  का  हर  शख्स  करता  है । लेकिन  इस  हकीकत  से  चाहे  हजरत  इमाम   हुसैन  के  दुश्मन  चश्म  पोशी  कर  लें , मगर  हम  लोग यह  कहे  बग़ैर  नहीं  रह  सकते  के  हजरत  इमाम   हुसैन  की  बैनुल अक़वामी  हैसियत  और  उनकी  ज़ात  से , बग़ैर  इम्तियाज़े  मज्हबो  मिल्लत  हर  शख्स  को  इतनी  इतनी  गहरी  मोहब्बत  है , जितनी  के  किसी  को  किसी   से  नहीं   है . ऐसा  क्यूँ  है , हम  नहीं  कह  सकते , क्यूँ के  बहुत  सी  बातें  ऐसी  भी  होती  हैं  जो  ज़बान  तक  नहीं  आ  सकती  हैं , मगर  दिल  उनको  ज़रूर  महसूस  कर  लेता  है ।
आप  दुनिया  की  किसी  भी  पढ़ी  लिखी  शख्सियत  से  अगर  इमाम  हुसैन  के  मुताल्लिक़  दरयाफ्त  करेंगे  तो  वो इस  बात  का  इकरार  किये  बग़ैर  नहीं  रह  सकेगा  के  यकीनन  हुसैन  अपने नज़रियात  में  तनहा  हैं , और  उनकी  अजमत  को  तस्लीम  करने  वाली  दुनिया  की  हर  कौम , और  दुनिया  का  हर  मज़हब , और  उसके  तालीम  याफ्ता  अफराद  हैं ।
एक  बात  मेरी  समझ  में  और  भी  आती  है , और  वो  यह  के  हिन्दोस्तान   चूंके   मुख्तलिफ  मज़हब  के  मानने  वालों  का   मरकज़  है , और  इमाम  हुसैन  की  शख्सियत  में  ऐसा जज्बा पाया  जाता  है , के  हर  कौम   उनको  खिराजे  अकीदत  पेश  करना  अपना  फ़र्ज़  जानती  है।  और  यह  मैं  पहले  ही  अर्ज़  कर  चुक्का  हूँ  के  हजरत  इमाम  हुसैन  चूंकि  आने  वाले  वाकेआत  का  इल्म  रखते  थे , इसलिए  वो  ज़रूर  जानते  होंगे  के  एक  ज़माना  वो  आने  वाला  है  के  जब  भारत  की  सरज़मीन  पर  दुनिया  के  तमाम  मज़हब  के  मानने  वाले  आबाद  होंगे . इसलिए  हुसैन  चाहते  थे  के  दुनिया  की  हर  कौम  के  अफराद  यह  समझ  लें  के  उनकी  मुसीबतें  और  परेशानियाँ  ऐसी  थीं  जिनसे  हर  इंसान  को  फितरी  लगाव  पैदा  हो  सकता  है , ख्वाह  उसका  ता’अल्लुक़  किसी  मज़हब  से  क्यूँ  ना  हो । 
इसी  तरह  यज़ीद  के  ज़ुल्म  ओ  जौर  और  उसके  बदनाम  किरदार   को  भी   उसके  बेपनाह  मज़ालिम  की  मौजूदगी  में  समझा  जा   सकता   है . चुनांचे  हकीकत  तो  वोही  होती  है  जिसको  दुनिया  का  हर  वो  शख्स  तस्लीम  करे  जिसका  ताअल्लुक़  ख्वाह  किसी  मज़हब  से  हो।   लिहाज़ा  हिन्दोस्तान  में  चूंके   हर  कौम  ओ  मज़हब  में    इन्साफ  पसंद  हजरात  की  कमी  नहीं  है , इसलिए  हो  सकता  है  के  हजरत  इमाम  हुसैन  ने  इसी  मकसद  को  पेश  ऐ  नज़र  रखते हुए  यह  इरशाद  फ़रमाया  हो  के  वो  हिन्दोस्तान  जाने  का   इरादा  रखते  हैं।  अगर  चे  उनकी  तमन्ना  पूरी  ना  हो  सकी , लेकिन  मशीयत  का  यह  मकसद  ज़रूर  पूरा  हो  गया  के  हिन्दोस्तान  की  सरज़मीन  पर  रहने  वाले  बगैरे   इम्तियाज़े  मज़हब , इमाम हुसैन  को  मोहब्बत  ओ  अकीदत  के  मोती  निछावर  करते  रहते  हैं  और  करते  रहेंगे ।

इमाम हुसैन (अ:स) के खुतबे - मदीना से कर्बला तक

अल्लामा मुहम्मद सादिक नजमी द्वारा संकलित
  आवाज़ : स्येद नासिर काज़मी
  अह्लुल्बैलामिक सेंटर, लाहौर द्वारा प्रकाशित


Courtesy : http://www.islaminhindi.org/Muharram-KHUTBAATE-IMAM-HUSSAIN-AS.htm

The rewards for mourning Imam Husain (AS)

Azadari distinguishes between the path of Husayn (as) and that of Yazeed

Had it not been for these mourning rituals, the distinction between the path of Husayn (as) and that of Yazeed would have been destroyed, thanks to the efforts of Nasibis such as Sipah-e-Sahaba who now openly deem the Khilafath of Yazeed to be rightful.

Azadari has ensured that the efforts of Yazeed's modern day lovers will never be achieved, Yazeed will for ever be deemed as a hateable man who symbolises filth, shame, debauchery, decadence, immorality, mental corruption, and all the ingredients existent in the DNA of Iblis (Devil).

We deem our Azadari (mourning) as the means via which we can express our sorrow for the Ahl'ul bayt (as). The words of Imam of Ahl'ul Sunnah Allamah Fakhrudeen Radhi are very important:

"It is our firm belief that one who dies with love for the descendants of Muhammad (s) dies a martyr".
Tafseer al Kabeer volume 7 page No.390 line No 9

Martyrdom in Sunni books

"One who dies on account of overeating will be alleviated from punishment in the grave"
Al-Jami al-Kabir by al Tabrani Page No. 59

We read in Sahih Bukhari Volume 1, Book 11, Number 688, Book of revelation:

Narrated Abu Huraira:
The Prophet said: "Martyrs are those who die because of drowning, plague, an abdominal disease, or of being buried alive by a falling building."

We read in Sunan al Nasai Volume 4 Page 99:

"The Prophet said: "Martyrs are those who die because of plague, an abdominal disease, or a women that dies in child birth"

In sum these references show that in the eyes of the Ahl'ul Sunnah, one who dies on account of:

Overeating
Catching the plague
Stomach pain
Drowning
Being flattened under a wall
Childbirth
and also that poor fellow who is killed in Jihad.

According to Ahl'ul Sunnah martyrdom is so easy and cheap that the above-mentioned seven classes of deaths are martyr's deaths. So when a man dies in love of Ahl'ul bayt (as) why does he not attain the status of "martyr" when love for them is a religious duty in the Qur'an.

Love and Mullah's

If the concept of "Martyrdom" is not yet clear in people's minds, we shall further cite this Hadeeth from Tareekh Baghdad Volume 5 page 116:

عن بن عباس قال قال رسول الله صلى الله عليه و سلم من عشق وكتم وعف فمات فهو شهيد

Ibn Abbas narrated that Allah's messenger said: 'Whoever fells in love, then hides his feelings and guards his chastity and died, surely he is a martyr".

Comment

Look at the trickery of these Nasibi Mullahs who have sought to endorse illegitimate love affairs into Islam. They have not only created a Hadith but also placed the defeated illegitimate lover to the status of a martyr. If a love sick male / female can attain the rank of a martyr than all those seeking justice are invited to give their opinion as why one who dies in the love of descendants of Muhammad (s), (which is considered to be the reward of office of prophet) cannot attain the rank of martyrdom.

How can you attain Paradise through mourning (Azadari)?

Dear Readers, whenever we read the sayings (hadith) regarding the gain of heaven in reward of weeping, lamenting, mourning and religious conferences, Nasibi ask how we can attain this without prayers, fasting, Haj and Zakat. It would have been better, if they had conducted an examination of their own books.

عبد الله بن عمر قال قال رسول الله صلى الله عليه و سلم من قاد أعمى أربعين ذراعا وجبت له

"Paradise is rewarded to he who grasps the stick of a blind man and assists him to reach a place forty hand spans ahead".
Tareekh Baghdad, volume 5 page 105

We invite the lovers of justice to see the cleverness of these Mullahs. One who catches the stick of a blind man can enter Paradise whilst the man who dies in love of descendants of Muhammad (s) has no right to enter Heaven!

The merits of feeding Halwa (sweet dish)

We read in Tareekh Baghdad Volume 4 page 85:

Anyone that feeds his brother some sweet dish (Halwa), Allah on the Day of Judgement shall keep him aloof of seventy difficulties (Balaah).

These Nasibi deny that mourning for Imam Husayn (as) carries any benefit to the participant. They condemn feeding the participants of Azadari but for every parcel of sweet fed to a Mullah seventy problems are cleansed.

The Promise of Paradise by Imam Husayn (as) to his mourners

Imam Ahmed records in Fadhail Sahaba, Volume 2 page 675 Tradition 1154:

"Narrated on the authority of Ahmed bin Isra'el: 'I read in the book of Ahmed bin Muhammed Bin Hanbal written by his own hand writing on the authority of Aswad Bin Amer Abu Abd Arrahman on the authority of Al-Rubay bin Mundher on the authority of his father that Al-Hussain use to say: 'Whomsoever eyes cries a drop of tears on us or sheds a one drop of tears on us, Allah will reward him with paradise'
Fadhail Sahaba, Volume 2 page 675 Tradition 1154

It is now abundantly clear from above that a single drop of tear is a certain guarantee of Paradise.

Imam Sajjad (as) and Baqir (as) said, "Those that mourn Husayn (as) will be protected from Hellfire"

We read in Yanabi al Mawaddah fil Qurba by Sheikh Suleiman Qandozi Balkhi, Page 398

"A narration in the Exegesis of Ali ibn Ibrahim from Imam Mohamed Baqir (as) says that he said, "My father Ali (as) s/o Husayn (as) said, "The person who weeps upon my father and his companions and his tears flow down his cheeks, shall receive from Allah a chamber in Paradise. Whosoever remembers the calamities and heartbreaking incidents which my father and his companions faced in Karbala and weeps for them, for him shall Allah remove the intense pressure and excruciating pain of the Day of Judgment and shall keep him under his care and protection".

Mourning the living carries a reward on par with mourning for a hundred martyrs

We read in Ahl'ul Sunnah's authority work Tafseer Dur al-Manthur, Volume 4 page 569 Surah Yusuf verse 84:

Layth bin Abi Salim narrated that Jebril (as) went to Yusuf (as) in the jail, thus he (Yusuf) recognized him and said to him: 'O you an honored angel by his God, do you have news about Yaqub?' (The angel) said: 'Yes'. (Yusuf) said: 'How is he doing?'. (The angel) said: 'His eyes has turned white on account of grief for you'. (Yusuf) said: 'What was the extent of his sadness?' (The angel) said: 'The grief of seventy women'. (Yusuf) said: 'Is he rewarded for this?' (the angel) said: 'Yes, its on par with one hundred martyrs'.
Tafseer Dur al-Manthur, Volume 4 page 569

We read in Tafseer Khazan, Volume 4 page 46:

قال يوسف فهل لك علم من يعقوب أيها الروح الأمين قال نعم قد ذهب بصره وابتلاه الله بالحزن عليك فهو كظيم ووهب له الصبر الجميل قال فما قدر حزنه قال حزن سبعين ثكلاء قال فما له من الأجر يا جبريل قال أجر مائة شهيد

Yusuf said: 'O true spirit, do you have news about Yaqub?' (The angel) said: 'Yes, he has become blind on account of grief for you and he was suppressing'. (Yusuf) said: 'What was the extent of his sadness?' (The angel) said: 'The grief of seventy women'. (Yusuf) said: 'What is the reward for this?' (The angel) said: 'The reward for this mourning is on par with one hundred martyrs'.

Yaqoob (as) was a Prophet and no one has the audacity to attack him. This Prophet mourned his live son to such an extent that he became blind; Allah held his weeping to be on par with mourning 70 men and women. We have evidenced this from the works of Ahl'ul Sunnah. How can these Nasibi advance verses demanding patience with regard to remembering Imam Husayn (as) when we have this practice of Prophet Yaqoob (as)? Or is Sipah-e-Sahaba going to apply their fatwa to Prophet Yaqoob (as) too?
We see a Prophet mourning the separation of his son, who had not suffered any form of tragedy, yet he mourns his loss and this act cannot be criticised. Likewise if the Shi'a remember the tragedy suffered by the Ahl'ul bayt (as), their mourning is also permissible. The mourners of Husayn (as) can not maintain patience / silence when extreme injustice is perpetuated against their Imam. The victim shall make every effort to make his suffering known to all, whilst the killer shall make every effort to prevent such news from spreading, which is why today's supporters of Mu'awiyah and Yazeed are working tirelessly to put an end to the mourning rituals associated with mourning Imam Husayn (as).

The Status of one that mourns Imam Husayn (as)

In authentic book of Ahl'ul Sunnah "Sawaiq-e-Muhariqqah", page 147, published Egypt, it is written:

"The narrator says that sons of Taymoor told him when Taymoor became ill, in some days he became very restless and face became dark. Then he became little healthy. His sons asked him about this change of his face colour, thereupon he told them that angels of 'Adhab came to him. But later Rasool Allah (saw) also came and told them to leave him, while he loved his progeny. Thus angels went away leaving me alone."

You see these Nasibi Mullahs shout loudly that it was Taymoor who started this Azadari and he was so and he was so.... whatever wrong he did his love for Aal-e-Nabi and their 'Azadari became the Waseela that Nabi (s) himself came to do his Shafa'at (intercession). We Shi'as also love and respect Aal-e-Nabi and we are sure that they will intercede us for the sake of this love and respect.

Exaggeration when narrating the merits of the Ahl'ul bayt (as)

It is claimed that the Shi'a provide undue and unjustified moral excellence to the descendants of the Prophet (s) under the cover of mourning. (Azadari)

So we invite them to examine their own works first:

قال لي رسول الله صلى الله عليه و سلم يا على ان الله أمرني ان اتخذ أبا بكر والدا

"The Prophet said: 'O Ali, God has ordered me to take Abu Bakr as my father"
Tareekh Baghdad Volume 9 page 345

Astaghfirullah! We the Shi'a possess faith and love for the Ahl'ul bayt (as) but we do not give them any undue and unjustified moral excellence. We consider Hassan (as) and Husayn (as) to be the sons of Prophet and consider Ali (as) as his cousin and son in law. It is our belief that he (Ali) is the servant of Prophet (s) and his religious status is that of the true Khaleefa of the Prophet (s). Compare this to the Ahl'ul Sunnah depicting Abu Bakr to be the father of Prophet (s). If Nasibi attempt to explain away the tradition by stating that father here refers to father in law, then we will say that this does not elevate his rank in any way since the prophet had eighteen wives and hence 18 such eighteen fathers in law.

Let us see another example of exaggeration. 
Read Quran and become a prophet  :  as recorded by Imam al-Beyhaqi in his book Shu'ab al-Eman, Volume 5 page 4 Tradition 1937 :

قال : قال رسول الله صلى الله عليه وسلم : « من قرأ ثلث القرآن أعطي ثلث النبوة ، ومن قرأ نصف القرآن أعطي نصف النبوة ، ومن قرأ ثلثي القرآن أعطي ثلثي النبوة ، ومن قرأ القرآن كله أعطي النبوة كلها

Abu Umama narrated that Allah's messenger said: 'Whoever recites the third of Quran, he will be granted the third of prophethood, whoever recites the half of Quran will be granted the half of prophethood, whoever recites two thirds of Quran will be granted two thirds of prophethood, whoever recite the whole Quran will be granted the whole prophethood."

Astaghfirullah .....
Will you believe in such Hadith which has made prophethood accessible for all

The Ahlulbait granted freedom by Yazeed because of his own fear

After the death of Sakina, the people of Syria started to question Yazid about the prisoners. Many felt that they had already spent so long in prison in the worst possible condition. What crime had they committed to deserve such treatment? Yazid realized that if he did not do anything to change the situation, the people would turn against him. He made arrangements for the prisoners to be brought to the palace court to be set free. Many people were invited to see the event. When everybody was seated, an announcement was made that the great Grandson of the Prophet was entering the court. The ladies of his household were seated behind the curtain which was put up especially for the occasion.
When Imam Zainul Abideen walked in everyone stood up. They could not believe what they saw. Even though the chains had been removed, he could hardly walk. His neck, hands and feet were deeply cut and bleeding. His back was bent because of the way he had been chained. But there was dignity in his face, never bowed down to Yazid, at any time. Yazid told Imam Zainul Abideen that they were free to leave, and offered them any amount that they required. Zainab said from behind the curtain “O Yazid, haven’t you done enough to us. Do you still want to insult us, by this offer? Your actions can only be judged by God. You will have to answer to Him and the Prophet Muhammad (pbuh) for all that you have done. All that we want are the heads of our martyrs and our property which your men looted from us. They took away the veil that was given to me by my mother. They took away the bloodstained clothes of my brother. They took away Sakina’s earrings which were given to her by her father. No Yazid there is nothing that you can give us to replace these things, which mean more to us than anything else.” Yazid was amazed at her answer. He promised to give back everything that was taken from them in Karbala. One part of the royal palace was emptied. The first Majlis for Aza-e-Hussain took place in the palace of Yazid itself. The Syrian women came wearing black dresses. The wailing resounded the walls and doors of the palace due to the renditions of Zainab (pbuh). Imam Zainul Abideen and the rest of the ladies and children stayed in Syria for a few more days and then made preparations to travel to Karbala, to pay their respects to their martyrs, and then go back to Madina. They went back to the prison to say goodbye to Sakina. Sakina’s mother Rubab fell on the grave crying “O my dear Sakina, we are finally free to go home. But my child you are still imprisoned in Syria. My Sakina I am leaving, but my heart and soul will always be here with you. Please O people of Syria look after the grave of my child Sakina.” Finally, the Grandchildren of the Holy Prophet (pbuh) left Syria. Imam Zainul Abideen led the plundered caravan towards Karbala. Everyone was very quiet. They were all thinking about their loved ones. When they arrived in Karbala in 40 days; they sat by the graves, crying and remembering that tragic day on the tenth of Muharram when they lost so many of their loved ones. Finally, after saying goodbye to their martyrs they started the journey back to Madina. How sad this journey must have been. Even though they were free, their hearts were in Karbala and Syria.

When the caravan reached Madina, Zainab (pbuh) visited the grave of her Grandfather, the Prophet Muhammad (pbuh). She sat by his grave and complained, with tears in her eyes. “O my Grandfather look at what Yazid and his men did to your Grandchildren. They killed your most beloved Grandson, Imam Hussain. They killed Abbas, when he went to get water for Sakina. They killed Ali Akbar, who looked like you. They killed my brother’s son Qasim. They killed my sons Aun and Muhammad. They didn’t even leave little Ali Asgher. O my dear Grandfather, your beloved Sakina is also gone. She died in the dark prison of Syria.”

Zainab then went to the grave of her mother Fatima (pbuh) and said “O my dear mother look at what they have done to us? Look at these bloodstained clothes of your son. O my mother they paraded us in the streets of Kufa and Syria without our veils.” A voice came from the grave, “My dear child I saw what they did. I was there when they beheaded my son. I was there when the guards slapped Sakina just for crying for her dead father. I was there when they paraded you on the streets without your veils.” Zainab cried “O my dear mother I have so much to tell you...” One of the tortures of Syria is about the prison in which household of Holy Prophet (pbuh) were imprisoned for approximately a year. And once after release from the imprisonment, when Imam Zainul Abideen (pbuh) saw his aunt praying while sitting, he asked with surprise, “O Aunt you were not performing even optional prayers in sitting position, while today you are performing obligation prayers in this posture.” Tears came in the eyes of Zainab, she said “While in prison, the food and water were supplied in such a meager quantity that I used to pass on my share of food and water to the children. Due to continuous starvation I have become so weak that I could not pray by standing straight.”

A man by the name of Noaman went to Madina three (3) years after the events of Karbala. He saw the Imam Sajjad standing near the grave of the Prophet weeping and complaining to the Prophet about the ill-treatment that Imam and the other members of the Prophet’s family had received. Imam remained in this position until when he fainted and was then taken by his followers to his house. Noaman went to Imam’s house. Then asked the Imam what was the most difficult time he had to face in Karbala and during his imprisonment to Kufa and Damascus. The Imam said, “Syria! Syria! Syria!”and then explained that in Syria (Shaam) the family of the Prophet was treated like animalsand presented to the court of Yazid like slaves. In this way people of Madina were to see him mourning for his father from then till his death some thirty five (35) years later at the age of fifty seven (57). It is reported that whenever Imam Sajjad see water he would weep, remembering the thirst of the martyrs of Karbala. When he saw a goat or sheep being slaughtered, he would ask the slaughter if he had fed the animal and given it water. On being assured that this had, indeed, been done, the Imam would weep, saying that his father & other martyrs were slaughtered hungry and thirsty of three days. He held regular mourning session in his house. Those who attended these sessions would then be served with food in the name of his father, Imam Hussain. One day somebody told him. “O son of God’s Messenger! Up to when would you weep like this?” Imam replied “O servant of God. Prophet Yaqub had twelve sons but only one of them was taken away form him, he wept so much and for such long that his eyes turned white, his head turned gray and his back was bent although his son Yusuf was still alive. Whereas I watched my father, my brother and seventeen (17) members of my family being slaughtered all around me. How could my sorrow come to an end?”

Courtesy : http://thebattleofislamkarbala.blogspot.com